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यशस्तिलक में वर्णित वर्ण व्यवस्था और समाज गठन
डॉ० गोकुलचन्द्र जैन प्राचार्य, एम० ए० पो-एच० डी०
यशस्तिलक कालीन भारतीय समाज छोटे-छोटे अनेक लिए इस विषय में श्रुति (वेद) और शास्त्रान्तर (स्मृति वर्गों में बटा हुमा था। प्रादर्श रूप में उन दिनो भी प्रादि) को प्रमाण मान लेने में हमारी क्या हानि है। वर्णाश्रम-व्यवस्था की वैदिक मान्यताएं प्रचलित थी। यश- इस प्रसंग में प्राये प्रति और शास्त्र शम्द को स्तिलक से इस प्रकार की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती
अन्यथा न समझा जाए, इस लिए स्वयं सोमदेव ने उक्त है। विभिन्न प्रसंगो पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दोनों शब्दों को स्पष्ट कर दिया है। इन चारों वर्षों तथा अपने-अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व
श्रुति वेदमिह प्राहुर्धर्मशास्त्र स्मृतिमता। (१० २७०) करने वाले अनेक सामाजिक व्यक्तियों के उल्लेख पाये
श्रुति वेद को कहते हैं और धर्मशास्त्र स्मृति को। है। सोमदेव ने एकाधिकबार वर्ण शुद्धि के विषय मे भी
उपयुक्त प्रश्न को प्रस्तुत करने के बाद सोमदेव ने सूचनाए दी है। (पृ० १६, २०८, १८३ उत्त०)
अपना निर्णय निम्न लिखित शब्दों में दे दिया हैवर्णाश्रम व्यवस्था की वैदिक मान्यतामों का प्रभाव
सर्व एव हि नानां प्रमाणं लौकिको विधि:। सामाजिक जीवन के रग-रग में इस प्रकार बैठ गया था कि इस व्यवस्था का घोर विरोध करने वाले जैनधर्म अनुयायी
यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥ पु. ३७३ भी इसके प्रभाव से न बच सके। दक्षिण भारत में यह जिस विधि से सम्यक्त्व की हानि न हो तथा व्रत में प्रभाव सबसे अधिक पड़ा, इसका साक्षी वहाँ उत्पन्न होने दूपण न लगे, ऐसी प्रत्येक लौकिक विधि जैनों के लिए वाले जैनाचार्यों का साहित्य है। सोमदेव के पूर्व नवीं प्रमाण है। शताब्दि में ही प्राचार्य जिनसेन ने उन सभी वैदिक इस पृष्टभूमि पर विकसित होने वाला सोमदेव का नियमोपनियमों का जैनीकरण करके उन पर जनधर्म की चिन्तन उनके दूमरे ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत में अधिक स्पष्ट छाप लगा दी थी, जिन्हें वैदिक प्रभाव के कारण जैन रूप से सामने पाया है। उमके त्रयी समुद्देश में किया समाज भी मानने लगा था। जिनसेन के करीब सौ वर्ष गया वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी वर्णन स्मृति प्रतिपादित तत् बाद सोमदेव हुए। वे यदि विरोध करते तो भी सामाजिक तत् विषयों का सूत्रीकरण मात्र है। ब्राह्मण प्रादि चार वर्ण, जीवन में से उन मान्यताप्रो का पृथक् करना सम्भव न । उनके अलग-अलग कार्य सामाजिक और धार्मिक अधिकार था, इसलिए यशस्तिलक में उन्होंने जैन चिन्तको के सामने प्रादि का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है। सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में एक प्रश्न उपस्थित
जैन मिद्धान्तों के साथ वर्ण-व्यवस्था तथा उसके किया है
प्राधार पर ममाजिक व्यवस्था का प्रतिपादन करने वाले द्वो हि मो गृहस्थानां लौकिक: पारलौकिक : ।
मन्तव्यों का किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठता । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रय
सोमदेव स्वयं सिद्धान्तों के मर्मज्ञ विद्वान थे। ऐसी स्थिति जातयोऽनादयः सर्वास्ततिक्रयापि तथाविधाः ।।
में उनके द्वारा किया गया यह वर्णन मिद्धान्तों में अन्तः श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ।।
विरोध उपस्थित करता हुमा प्रतीत होता है। गृहस्थों के दो धर्म हैं--एक लौकिक दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रित है और पारलौकिक प्रागमाश्रित। १. तुलना-नीतिवाक्यामृत त्रयी समुद्देश । जातियां अनादि तथा उनकी क्रियाए भी मनादि है, इस
मनुस्मृति अध्याय १.
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