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________________ २१२ अनेकान्त पद्ममिनीचरित्र और रायचन्द्र के सीताचरित्र को पाण्डु. रस होने से क्या हमा। प्रबन्ध काव्य में कोई न कोई लिपियों के रूप में मैंने पढ़ा है और मैं उन्हें इस युग के रस तो मुख्य रस होगा ही। उसकी पृष्ठ भूमि में समूचा किसी प्रबन्ध काव्य से निम्नकोटि का नहीं मानता । इनके मानव जीवन गतिशील रहता है, यह प्रबंध काव्यों की अतिरिक्त अपभ्रंश और हिंदी के नेमिनाथ राजुल से मूल विधा के जानकारों से छिपा नहीं है । प्रबंध काव्य की सम्बधित खण्डकाव्य हैं । उनका काव्य सौंदर्य अनूठा है। कसौटी पर खरे उतरते हुए भी शांत रस का सुनिर्वाह मैंने अपने ग्रंथ 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य और कवि' में जैन काव्यों की अपनी विशेषता है और वह वीतरागी यथा स्थान उनका विवेचन किया है। परिप्रेक्ष्य में ही ठीक से समझी जा सकती है। ऐसा होने इन विविध काव्यों में युद्ध है, प्रेम है, भक्ति है, . के पर ही उसका आकलन भी ठीक हो सकता है। प्रकृति के सजीव और स्वाभाविक चित्र हैं । संवाद-सौष्ठव की अनुपम छटा है । भाषा में लोच और भावों में अनु- ४. पं. नाथराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास भूति की गहराई है । कहीं छिछलापन नहीं, कहीं उद्दाम जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, बम्बई, वासनाओं का नग्न नृत्य नहीं । केवल शांत रस के प्रमुख जनवरी १९१७ पृ० ५६ । उपदेशक पद राग ख्याल कविवर भूधरदास मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे ॥टेक ॥ कामिनि तन कांतार जहां है, कुच परवत दुखदाय रे ॥मन मूरख० काम किरात वस तिहि थानक, सरवस लेत छिनाय रे । खाय खता कोचक से बैठे, अरु रावन से राय रे ॥ मन मूरख० मौर अनेक लुटे इस पेड़ें, वरनं कौन बढ़ाय रे । वरजत हों वरज्यो रह भाई, जानि वगा मति खाय रे ॥मन मूरख० सुगुरु दयाल दया करि भूधर, सोख कहत समझाय रे। प्रागै जो भाव करि सोई, दोनो बात जताय रे ॥ मन मूरख०
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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