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________________ २१४ अनेकान्त सोमदेव के पूर्वकालीन साहित्य को देखने से पता वह लोक में शूद्र कहलाता हो या ब्राह्मण, स्वेच्छा से धर्म चलता है कि जैन चिन्तक बहुत पहले से ही सामाजिक धारण कर सकता है। वातावरण और वैदिक साहित्य से प्रभावित हो चले थे, सैद्धान्तिक ग्रंथों में सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी उसी प्रभाव में पाकर उन्होंने अनेक वैदिक मन्तव्यों को मन्तव्यों का वर्णन नही है। पौराणिक अनुश्रति भी जैन सांचे में ढालने का प्रयत्न किया। यहां तक की बाद चतुर्वर्ण को सामाजिक व्यवस्था का प्राधार नहीं मानती। के अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थों तक पर यह प्रभाव स्पष्ट अनुश्रुति के अनुसार सभ्यता के प्रादि युग मे, जिसे परलक्षित होता है। शास्त्रीय भाषा में कर्म-भूमि का प्रारम्भ कहा जाता है, मूल में जैनधर्म वर्ण-व्यवस्था तथा उसके प्राधार पर ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता। सिद्धान्त का उपदेश दिया। उसी आधार पर सामाजिक व्यवस्था ग्रन्थों के वर्ण और जाति शब्द नाम कर्म के प्रभेदों में बनी६ । लोगों ने स्वेच्छा से कृषि प्रादि कार्य स्वीकृत कर पाए हैं। वहां वर्ण शब्द का अर्थ रंग है, जिसके कृष्ण, लिये । कोई कार्य छोटा बड़ा नहीं समझा गया। इसी तरह नील मादि पांच भेद हैं। प्रत्येक जीव के शरीर का वर्ण कोई भी कार्य धर्म धारण करने में रुकावट नहीं माना गया। (रंग) उसके वर्ण-नामकर्म के अनुसार बनता है ।२ इसी बाद के साहित्य में यह अनुश्रुति तो मुरक्षित रही, तरह जाति नामकर्म के भी पांच भेद हैं-एकेन्द्रिय, किन्तु उसके साथ में वर्ण-व्यवस्था का सम्बन्ध जोडा जाने द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पचेन्द्रिय । संसार के लगा। नवमीं शती में प्राकर जिनसेन ने अनेक वैदिक सभी जीव इन पांच जातियों में विभक्त है । जिसके केवल मन्तव्यों पर भी जैन छाप लगा दी। एक स्पर्शन इन्द्रिय है उसकी एकेन्द्रिय जाति होगी। जटामिह नन्दि (७वी शनी, अनुमानित) ने चतुर्वर्ण मनुष्य के स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्ष और श्रोत्र ये पांचों की लौकिक और श्रौतस्मात मान्यताओं का विस्तार पूर्वक इन्द्रियाँ होती हैं, इसलिए उसकी जाति पंचेन्द्रिय है। पशु खण्डन करके लिखा है कि-कृतयुग में तो वर्ण भेद था के भी पांचों इन्द्रियाँ हैं, इसलिए उसकी भी पचन्द्रिय नहीं. तायग में स्वामी-मेबक भाव प्रा चला था। इन जाति है३ । इस तरह जब जाति की दृष्टि से मनुप्य प्ररि दोनों युगो की अपेक्षा द्वापर युग मे निकृष्ट भाव होने पश में भी भेद नहीं तब वह मनुष्य-मनुष्य का भेदक लगे और मानव समूह नाना वर्गों में विभक्त हो गया। तत्त्व कैसे माना जा सकता है ? वर्ण (रंग) की अपेक्षा कलियुग मे तो स्थिति और भी बदतर हो गई। शिष्ट अन्तर हो सकता है, किन्तु वह ऊंच-नीच तथा स्पृश्य- लोगो ने क्रिया विशेष का ध्यान रख कर लोगो ने क्रिया विशेष का ध्यान रख कर व्यवहार चलाने अस्पृश्य की भावना पैदा नहीं करता। के लिये दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्ल के प्राधार पर गोत्र कर्म के उच्च गोत्र और नीच गोत्र दो भेद भी चार वर्ण कहे है अन्यथा वर्ण-चतुष्टय बनता ही नहीं । प्रात्मा की प्राभ्यान्तर शक्ति की अपेक्षा किए गए है। रविषणाचार्य (६७६ ई.) ने पूर्वोक्त अनुथुति तो ये वर्ण, जाति पोर गोत्र धर्म धारण करने मे किसी भी सुरक्षित रग्बी, किन्तु उसके साथ वर्णों का सम्बन्ध जोड़ प्रकार की रुकावट पैदा नही करते । प्रत्येक पर्याप्तक दिया। उन्होंने लिखा है कि-ऋपभदेव ने जिन व्यक्तियों भव्य जीव चौदहवें गुणस्थान तक पहुच सकता है५। को रक्षा के कार्य में नियुक्त किया वे लोक में क्षत्रिय पाँचवे गुणस्थान से मागे के गुणस्थान मुनि के ही हो कहलाये, जिन्हें वाणिज्य, कृषि, गोरक्षा प्रादि व्यापारों सकते है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि कोई भी मनुष्य चाह में नियुक्त किया वे वैश्य तथा जो शास्त्रों से दूर भागे और हीन काम करने लगे वे शूद्र कहलाये। २. कर्मविपाकनामप्रथमकर्मग्रन्थः गाथा ३६ ३. वही, गाथा ३२ ६. स्वयम्भू-स्तोत्र, आदिनाथ स्तुति, श्लोक २, ४. कषायप्राभूत अध्ययन १, सूत्र ७. वरांगचरित २१६-११ ५. वही, अध्याय १० सूत्र ८. पद्मपुराण, पर्व ३, श्लोक २५५-५८ -
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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