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________________ यशस्तिलक में वर्णित वर्ण व्यवस्था और समाज गठन २१५ ब्राह्मण वर्ण के विषय में एक लम्बा प्रसंग पाया है। एक तरफ समाज में श्रौतस्मात प्रभाव स्वयं बढ़ता जिसका तात्पर्य है कि ऋपभदेव ने यह वर्ण नही बनाया, जा रहा था दूसरे उस पर जैनधर्म की छाप लग जाने से किन्तु उनके पुत्र भरत ने व्रती श्रावकों का जो एक अलग और भी दढ़ता पा गई। वर्ग बनाया वही बाद में ब्रह्मण कहलाने लगा। जिनसेन के करीब एक शती बाद सोमदेव हुए । वे जैन हरिवंश पुराण में जिनसेन मूरि (७८३ ई.) ने धर्म के मर्मज्ञ विद्वान् होने के साथ साथ प्रसिद्ध सामाजिक रविषेणाचार्य के कथन को ही दूसरे शब्दो मे दुहराया१०। नेता भी थे। उनके सामने यह समस्या थी कि जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्त, सामाजिक वातावरण तथा जिनसेन इस प्रकार कमणा वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करते द्वारा तिपादित मन्तव्यों का सामंजस्य कैसे बैठे ? वे यह रहने के बाद भी उसके साथ चतुर्वर्ण का सम्बन्ध जुड * जानते थे कि जिनसेन द्वारा प्रतिपादित मन्तव्यों का जैन गया और उसके प्रतिफल सामाजिक जीवन और थोत चिन्तन के साथ कोई मेल नहीं बैठता । किन्तु जन-मानस स्मात मान्यताए जैन समाज और जैन चिन्तको को प्रभा में बैठे हए संस्कारों को बदलना और एक प्राचीन प्राचार्य वित करती गई। एक शताब्दी बीतते-बीतते यह प्रभाव का विरोध करना सरल काम नहीं था। सोमदेव जैसे जन जैन जन-मानस में इस तरह बैठ गया कि नवमी शती में । नेता के लिए यह अभीष्ट भी न था। ऐसी परिस्थिति में जिनसेन ने उन सब मन्तव्यों को स्वीकार कर लिया और उन्होंने यह चिन्तन दिया कि गृहस्थों के दो धर्म मान उन पर जैनधर्म की छाप लगा दी । महापुराण में लिए जाएं -एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । पूर्वोक्त अनुश्रुति को सुरक्षित रखने के बादभी स्मृति लौकिक धर्म के लिए वेद और स्मृति को प्रमाण मान पथो की तरह चारो वर्णो के पृथक्-पृथक कार्य, उनके लिया जाए और पारलौकिक धर्म के लिए पागमों को। सामाजिक और धामिक अधिकार, ५३ गर्भान्वय, ४८ दीक्षान्वय और कन्वय क्रियानो एव उपनयन प्रादि सोमदेव के ये मन्तव्य ऊपर से देखने पर जैन-चिन्तन सस्कारों का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है११। के बिलकुल विपरीत लगते है, क्योंकि एक तो वेद पौर स्मतियों की विचारधारा जैन चिन्तन के माथ मेल नहीं जिनमेन पर श्रीतम्मात प्रभाव की चरममीमा वहा खाती । दूसरे जैनागमों में गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म, ये दिखाई देनी है, जब वे इस कथन का जनीकरण करने दो भेद तो पाते हैं१३ । किन्तु गृहस्थों के लौकिक और लगते है कि "ब्रह्मा के मुह से ब्राह्मण, बाहुप्रो से क्षत्रिय। पारलौकिक दो धर्मों का वर्णन यशस्तिलक के अतिरिक्त उरु से वैश्य तथा परी से शुद्रो की उत्पत्ति हुई।" वे अन्यत्र नहीं हुआ। लिखते है कि ऋषभदेव ने अपनी भुजामों में शस्त्र धारण अनायास ही यह प्रश्न उठता है कि क्या सोमदेव करके क्षत्रिय बनाये, उरु द्वारा यात्रा का प्रदर्शन क के जैसा निर्भीक शास्त्रवेत्ता लौकिक और वैदिक प्रवाह में वैश्यो की रचना की तथा हीन काम करने वाले शद्रों को बह कर जैनधर्म के साथ इतना बड़ा अन्याय कर मकता पैरो से बनाया। मुख से शास्त्रों का अध्यापन कराने हा है ? यशस्तिलक के अन्त परिशीलन में ज्ञात होता है कि भरत ब्राह्मण वर्ण की रचना करेगा१२ । मोमदेव ने जो चिन्तन दिया, उमका शाश्वत मूल्य है तथा ६. वही, पर्व ४, श्लोक ६९-१२२ जैन चिन्तन के साथ उसका किचित् भी विरोध नहीं प्राता। १०. हरिवंशपुराण, मर्ग , श्लोक ३३-४० ___सर्ग ११, श्लोक १०३-१०७ महाभारत, अध्याय २६६, इलोक ५-६ । ११. महापुराण, पर्व १६, श्लोक १७९-१६१, २४३-२५० पूना १९२२ ई. १२. तुलना-महापुगण, पर्व १६, श्लोक ३४३-३४६ मनुस्मृति, अध्याय १, लोक ३१, बनारस १९३५ ई. ऋग्वेद, पुम्पमूक्त १०, १०, १२ १३. चारित्रामृत, गाथा २०
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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