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________________ २१६ अनेकान्त सोमदेव ने यशस्तिलक में अनेक वैदिक मान्यताओं चिन्तन के मौलिक सिद्धान्तों का निर्वाह किया, उसका का विस्तार के साथ खण्डन किया है१४ । इसलिए यह शाश्वत मूल्य है। जिनसेन की तरह सोमदेव ने वैदिक कहना नितान्त प्रसंगत होगा कि वे वेद और स्मृति को मन्तव्यों को जैन साँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं किया प्रमाण मानते थे। प्रत्युत उन्हें वैदिक ही बताया। सामाजिक निर्वाह के लिए प्रीती याष्टिके यदि कोई उन्हें स्वीकृत करता है तो करे, किन्तु इतने द्योतक हैं । अवती सम्यग्दृष्टि का चौथा गुणस्थान मात्र से वे जैन मंतव्य नहीं हो जाते। होता है । इस गुणस्थानवी जीव के दर्शनमोह- सोमदेव के चिन्तन की यह स्पष्ट फलश्रुति है कि नीय कर्म की मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का उपशम, समाजिक जीवन के लिए किन्हीं प्रचलित लौकिक मूल्यों क्षय या क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व तो होता है, को स्वीकृत कर लिया जाये, किन्तु उनको मूल चिन्तन किन्तु चारित्रमोहनीय की अप्रत्याख्यानावरण कपाय के साथ सम्बद्ध करके सिद्धांतों को हानि नहीं करनी प्रादि प्रकृतियों के उदय होने से मयम बिलकुल भी नहीं चाहिए। सामाजिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं। देश, होता । यहाँ तक कि वह इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस काल और क्षेत्र के अनुसार उनमें परिवर्तन होते रहते और स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरत नहीं होता१५। हैं। यह भी निश्चित है कि सैद्धांतिक चिन्तन व्यवहार माने की कसौटी पर सर्वदा पूर्णरूपेण सही नहीं उतरता, किंतु वाला गृहस्थ जैन दृष्टि से इसी गुर स्थान के अन्तर्गत इतने मात्र से मूल सिद्धांतों में परिवर्तन नहीं करना पाता है। चाहिए। पारलौकिक धर्म को स्वीकार करने वाले गृहस्थ के चतुर्वर्ण लिए सोमदेव ने स्पष्ट रूप से केवल प्रागमाथित विधि ब्राह्मण : यशस्तिलक में ब्राह्मण के लिए ब्राह्मण को ही प्रमाण बताया है। यह गृहस्थ सैद्धांतिक दृष्टि में (११६-११८, १२६, उत्त०), द्विज (६०, १०५, १००, पंचम गुणस्थानवर्ती देशवती सम्यग्दृष्टि माना ज एगा। १०४, उत्त०, ४५७ पू०), विप्र (४५७, पू०), भूदेव यहाँ दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व विरोधी प्रकृतियो के (८८, उत्त०) श्रोत्रिय (१०३ उ०) वाडव (१३५ उत्त०), उपशम, क्षय या क्षयोपशम के साथ चारित्रमोहनीय कम उपाध्याय (१३१, उत्त०), मोहूतिक) ? (३१६, पू०, की अप्रत्याख्यानावरण कषायों का भी उपशम, क्षय या १४०, उत्त०), देवभोगी (१४०, उत्त०) तथा पुरोहित क्षयोपशम हो जाने से जीव देश-संयम का पालन करने (३१६. पू०, ३४५ उत्त०) शब्द आए है । एक स्थान पर लगता है१६ । इस गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि केवल उसी (२१०) त्रिवेदी ब्राह्मण का भी उल्लेख है। उन दिनों लौकिक विधि को प्रमाण मानता है जिसके मानने से समाज में ब्राह्मणों की खूब प्रतिष्ठा थी : राजा भी इस उसके सम्यक्त्व की हानि न हो तथा व्रत में दोष न लगे। बात में गौरव अनुभव करता कि ब्राह्मणों मे उमकी सोमदेव ने भी इस बात को कहा है, जिसका उल्लेख मान्यता है१७ । पितृतर्पण आदि सामाजिक क्रिया-काण्डों में ऊपर कर चुके हैं। भी ब्राह्मण ही पागे रहता था३ । श्राद्ध के लिए ग्राह्मणों इस तरह सोमदेव ने जिस कुशलता के साथ उस युग को घर बुलाकर भोजन कराया जाता था। विशष्ट के सामाजिक जीवन में प्रचलित मान्यतामों के साथ जैन ब्राह्मणो को दान देने की प्रथा थी१६ थान तथा मत्यो १७. त्रिवेदीवेदिभिर्मान्यः, पृ० २१० १४. यशस्तिलक उत्तरार्ष, अध्याय ४ १८. पितृसंर्पणार्थ दिजसमाजसपरसवतीकाराय समर्पया१५. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २५-२६-२६ मास, पृ० २१८ उत्त. १६. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३० १९. भुक्ता च श्राद्धामन्त्रितर्भूदेवैः, पृ०८८
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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