________________
५८
भनेकान्त
भी है।
निका वाक्य२२ द्वारा निर्दिष्ट किये गये हैं और उस षष्ठ परिच्छेद में भी दो स्थल ऐसे हैं जिन पर वाक्य में भी तीनों टीकाकारों, प्राचार्य प्रभाचन्द्र, प्राचार्य विचार होना चाहिए। दसवें और ग्यारहवें सूत्रों२४ अनन्तवीर्य और प्राचार्य चारुकीर्ति द्वारा एक वचन का को प्रमेयकमलमार्तण्ड और प्रमेयरलमाला के अधिकांश ही प्रयोग२३ किया गया है, यदि उनका पांचों को पृथक्- संस्करणों में एक ही सूत्र माना गया है, कदाचित् इसलिए पथक मानने का भाव रहा होता तो बहुवचन का ही कि दसवें सूत्र के पश्चात, दोनों ग्रन्थों में कोई व्याख्या प्रयोग किया जाना चाहिए था, (५) तीनों टीकाकारों द्वारा नहीं है। दो या दो से अधिक सूत्रों के बीच व्याख्या न प्रव्याख्यात छोड़ दिये गये हैं, इसलिए नहीं कि वे अन्यत्र होने से उनमें एकता स्थापित नहीं हो जाती और फिर भी ऐसा करते हैं बल्कि इसलिए कि वे इन्हें पृथक्-पृथक् दो टीकानों में न सही, एक टीका-प्रमेयरत्नालंकारमानते ही नहीं थे अतः उनकी पृयक्-पृथक व्याख्या करने में तो दसवें सूत्र के पश्चात् भी व्याख्या है। अतः उसे का प्रश्न ही उनके सामने नहीं था।
पृथक् सूत्र माना हो जाना चाहिए। ठीक यही स्थिति
इसी परिच्छेद के तीसवें और इकतीसवें सूत्र२५ के साथ २२. (१) [तदेवोक्तप्रकारं प्रत्यभिज्ञानम् ] उदाहरण द्वारे।
णाखिलजनावबोधार्थं स्फुटयति । स्व. पं. महेन्द्रकुमार जी: प्रमेयकमल मार्तण्ड,
परीक्षामुख जैन न्याय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। उसके पृ० ३४०1
विषय में ऐसी समस्याएँ कायम रहना उचित नहीं। यही (२) एषां [क्रमेणोदाहरणं] दर्शयन्नाह ।
सोचकर यह, अपना समाधान प्रस्तुत किया है। विद्वान् श्रीमान् पं० बालचन्द्र जी शास्त्री : प्रमेयरत्नमाला
महानुभावों से प्रार्थना है कि वे इस विषय पर विचार पृ० ८३।
करें और अपनी राय जाहिर करें तो बड़ी अच्छी बात (३) [उक्त प्रत्यभिज्ञान] मखिलजनावबोधार्थ
होगी। मुदाहरणद्वारेण स्पष्टयति । प्रमेररत्नालंकार : मेरे द्वारा सम्पादित पाण्डुलिपि, २४. असम्बद्ध तज्ज्ञानं तकभिासम् ॥१० पृ० १२६ ।
यावांस्तत्पुत्रः स श्यामो यथा ॥११ २३. इससे पहले वाली टिप्पणी में कोष्ठांकित शब्द २५. विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धः ॥३० द्रष्टव्य हैं।
अपरिणामीशब्दः कृतकत्वात् 1,३१
अनेकान्त के ग्राहक बनें
'भनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याषियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जैनबुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि 'अनेकान्त' के प्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनायें।