SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूपाल चौबीसी की एक महत्वपूर्ण सचित्र प्रति अगरचंद नाहटा भक्ति-भावना मानव के हृदय की एक सहज और तरह का है । जैन और जैनेतर पाराध्य उपास्य देव भिन्न उदात्त भावना है। अपने से विशिष्ट गुणवान व्यक्ति के भिन्न हैं और उनकी उपासना के उद्देश्य में भी बहुत बड़ा प्रति प्रादर की भावना होनी ही चाहिए। जिस व्यक्ति में अन्तर है। उन गुणों का चरमोत्कर्ष होता है वह अवतार या भगवान जैन दर्शन के अनुसार देवलोक के देवी-देवताओं का के रूप में पूजा जाने लगता है। ऐसे व्यक्तियों की स्तुति या स्तवन रूप में बहुत बड़ा साहित्य रचा गया है । वेदों इतना महत्व नहीं, जितना परिहंत और सिद्ध महापुरुषों की ऋचाएं भी अधिकतर प्रकृति या विशिष्ट शक्तियां या का है। तीर्थङ्कर प्रात्मा की उच्चतम अवस्था को प्राप्त देवताओं के स्तुति के रूप में ही रची गई है अर्थात् स्तुति करते हैं और जगत् को कल्याण का मार्ग दिखाते हैं । उन या स्तोत्र साहित्य का प्रारम्भ प्राचीनतम ग्रंथ वेद जितना वीतरागी पुरुषों की उपासना किसी ऐहिक कामना से है ही। समय-समय पर देवी-देवतामों के नाम व रूप करना व्यर्थ है । क्योंकि वे किसी को कुछ भी देते नहीं न बदले । पुराने देवी-देवता भला दिए गए और अनेकों नये वे स्तुति से प्रसन्न होते हैं और न निन्दा से रुष्ट । जैनधर्म में तीर्थङ्करों को 'देवाधिदेव' की संज्ञा दी गई है क्योंकि देवी-देवताओं की पूजा और उपासना प्रारम्म होती गई। स्वर्ग के इन्द्रादि देव भी उनकी सेवा करके अपने को धन्य इस तरह भारत में असंख्य देवी-देवताओं की अनेक प्रकार की उपासना देखने को मिलती है। देवी-देवताओं की संख्या मानते हैं। इसलिए जैन उपासना में देव के रूप में तीर्थङ्करों की उपासना ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जैन ततीस करोड़ तो सामान्य रूढ़ सी हो गई। इन देवी सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर या परमात्मा कोई एक ही देवतामों के महात्म्य और उपासना विधियों के सम्बन्ध में व्यक्ति नहीं है । अनन्त जीव अपनी उच्चतम अवस्था को सैकड़ों हजारों छोटी-मोटी रचनाएं प्राप्त हैं। इतना बड़ा प्राप्त करके अरिहंत व सिद्ध हो चुके हैं। वे सभी ईश्वर साहित्य देवी-देवताओं की इतनी बड़ी संख्या भारत के या परमात्मा हैं। उनमें कोई एक विशिष्ट या ज्येष्ठ सिवाय विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगी। नहीं। सिद्ध अवस्था में सब की अवस्था समान है। इसभारतीय साधना मार्ग में ज्ञान, भक्ति और योग को लिए सभी की उपासना की विधि व फल भी एक ही है। बहुत प्रधानता दी गई है। इनमें से भक्ति हृदय का एक अनन्त काल की अपेक्षा तो जैनधर्म के प्रवर्तक तीर्थङ्कर भी भाव है अतः सर्वसुलभ और सहज है। भारत में भक्तिमार्ग अनेक हो गये हैं। भरतक्षेत्र में इस काल में चौबीस को महत्ता लम्बे समय से ही दी जाती रही है। यद्यपि तीर्थङ्कर हो गये हैं। उनकी प्राचीनतम स्तुति प्राकृतभाषा भक्ति का स्वरूप सदा एक-सा नहीं रहा । जिस तरह देवी में चौबीसत्यो [चतुर्विंशतिस्तव] के नाम से प्रसिद्ध है । देवताओं के नाम व रूप बदलते गये उसी तरह भक्ति के प्रावश्यक में दूसरा प्रावश्यक चतुर्विशतिस्तव का है। प्रकार भी अनेक हैं और समय-समय पर भावों में विभि- दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समाज में 'लोगस्स उज्जो नता एवं परिवर्तन भी होता आया है। जिस प्रकार वेदों आदि पद से प्रारम्भ होने वाला चतुर्विशति स्तव प्रसिद्ध के समय में जिस उद्देश्य का दृष्टिकोण से जिस विधि या है। श्वेताम्बर समाज में तो नित्य प्रतिक्रमण-देव वन्दनशब्दों द्वारा स्तुति की जाती थी पागे चलकर उसमें काफी चैत्य वन्दन आदि में इसका पाठ किया जाता है। इसके परिवर्तन प्राया। उसी तरह अलग-अलग देवी-देवताओं बाद तो चौबीस तीर्थंकरों के सैकड़ों स्तुति स्तोत्र स्वतन्त्र की भक्ति व पूजा का उद्देश्य विधि-विधान भी अलग-अलग या सामूहिक स्तवना के रूप में रचे गये। जिनमें से
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy