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________________ परीक्षामुख के सूत्रों और परिच्छेदों का विभाजन : एक समस्या कमलमार्तण्ड और प्रमेयरत्नालंकार में यही नाम स्वीकृत है जबकि प्रमेयरत्नमाला में समुद्देश । परिच्छेदों के विभाजन में प्रमेयरत्नमाला श्रौर प्रमेयरत्नालंकार एकमत हैं और वैज्ञानिक भी । परन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड में, कह नहीं सकते किस उद्देश्य से प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने पंचम परिच्छेद के तीनों सूत्रों को चतुर्थ परिच्छेद में ही सम्मिलित किया है । और पष्ठ परिच्छेद को उसका अन्तिम सूत्र छोड़कर पंचम परिच्छेद माना है तथा षष्ठ परिच्छेद के केवल अन्तिम सूत्र को पष्ठ परिच्छेद के अन्तर्गत रखा है। इस विभाजन में कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती, कदाचित् इसीलिए इस विषय में स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी १५ भी१६ मौन रहे हैं। यदि प्राचीन प्रतियों से छानवीन की जाय तो मेरा यह अनुमान पुष्ट हो सकता है कि लिपिकार ने किसी पान्डुलिपि में, परिच्छेद के समाप्तिसूचक पद्यों और पुष्पिका वाक्यों को तितर-बितर कर दिया हो और उसी प्रति या उसकी परम्परागत प्रतियों पर से प्रमेयकमलमार्तण्ड के मुद्रित संस्करण निकाले गये हों। यदि हम पंचम परिच्छेद के समाप्तिसूचक पद्य १७ को पष्ठ परिच्छेद का समाप्तिसूचक मान लें और षष्ठ परिच्छेद के प्रारम्भ सूचक पद्य १८ को पंचम परिच्छेद का समाप्तिसूचक १६ १५. प्रमेयकमल मार्तण्ड के सम्पादक के रूप में । १६. और स्व० पं० वंशीधर जी शास्त्री भी । १७. प्रभासं गदितं प्रमाणमखिलं संख्याफलस्वार्थतः सुव्यक्तेः सकलार्थ सार्थविषयैः स्वल्पः प्रसन्नैः पदैः । येनासी निखिलप्रबोध जननो जीयाद् गुणाम्भोनिधिः aranीत्यः परमालयोऽत्र सततं माणिक्यनन्दिप्रभुः ॥ स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी न्याया० प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ६७५ । १८. प्राचां वाचाममृनतटिनीपूरकर्पूरकल्पान् बन्धान्मन्दा नवकुकवयो नूतनीकुर्वतो ये । ते यस्काराः सुभटमुकटोत्पाटिपाण्डित्यभाजं भित्वा खड्गं विदधति नवं पश्य कुण्ठं कुठारम् ॥ वही, पृ० ६७६ । १६. प्रमेयकमलमार्तण्ड में षष्ठ परिच्छेद के अतिरिक्त किसी भी परिच्छेद में आरम्भसूचक पद्य नहीं है, यह उल्लेखनीय है । ५७ मान लें; और फिर यह विभाजन प्रमेयरत्नमाला प्रादि के अनुसार कर दें अर्थात् चतुर्थ परिच्छेद में सम्मिलित किये गये पंचम परिच्छेद के तीनों सूत्रों को पञ्चम परिच्छेद ही मान लें भौर षष्ठ परिच्छेद के सूत्रों को श्रात्मसात् करने वाले पञ्चम परिच्छेद तथा एक सूत्रीय षष्ठ परिच्छेद को मिलाकर पष्ठ परिच्छेद ही मान लें तो वह समस्या तुरन्त हल हो जाती है। ऐसा करने में ग्रन्थकार का एक भी शब्द बाधक नहीं बनता २०, बल्कि लिपिकार की ही त्रुटि और भी स्पष्टतर हो उठती है । परन्तु प्राश्चर्य है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड के किसी भी संस्करण में इस इतने महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार नहीं किया गया । परिच्छेदों के अनन्तर सूत्रों का विभाजन उल्लेखनीय है। तृतीय परिच्छेद का पांचवां सूत्र है 'दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं, तत्प्रतियोगीत्यादि ।' और छठवां सूत्र, 'यथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशी गवयो, गोविलक्षणो महिप, इदम् अस्माद्दूरं वृक्षोऽयमित्यादि ।' प्रमेयकमलमार्तण्ड और प्रमेयरत्नमाला के प्रायः सभी संस्करणों में, इस छठवें सूत्र को एक न मानकर पांच माना गया है अतः जहां मेरे मत से छठवां ही क्रमांक आना चाहिए वहां उक्त संस्करणों में दसवां क्रमांक आ जाता है२१ । इन तथा कथित पांच सूत्रों को एक ही माना जाना चाहिए, क्योंकि ये सभी (१) एक ही सूत्र के उदाहरण हैं, (२) एक ही निर्देशवाचक सर्वनाम 'यथा' और एक ही विशेषण 'इत्यादि से संबद्ध है, (३) यदि एक ही माने जायं तो, जिसके ये उदाहरण हैं वह पांचवां सूत्र भी एक न माना जाकर पांच माना जाना चाहिए, (४) एक ही उत्था २०. टिप्पणियों के उपर्युक्त दोनों श्लोकों की शब्दावली द्रष्टव्य है । २१. यथा स एवायं देवदत्तः ॥६ गोसदृशो गवयः ॥७ गोविलक्षणो महिषः ॥८ इदम् अस्माद् दूरम् ॥६ वृक्षोऽयमित्यादि ॥ १०
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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