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परीक्षामुखके सूत्रों और परिच्छेदोंका विभाजन : एक समस्या
___पं. गोपीलाल 'अमर', एम. ए. साहित्य शास्त्री
जैन न्याय से तनिक भी परिचित व्यक्ति परीक्षामुख१ रत्नालंकारः। प्रमेयरत्नमाला पर प्राचार्य अजितसेन१० को अवश्य जानता है । यह जन न्याय का प्रथम सूत्रग्रन्थ ने न्यायमणिदीपिका११ और न्यायमरिणदीपिका पर है और प्राचार्य माणिक्यनन्दीर के यश को अक्षत रखने उपर्युक्त पण्डिताचार्य जी ने न्यायमणिदीपिकाप्रकाश १२ के लिए, उनकी एकमात्र कृति३ होकर भी पर्याप्त है। नामक टीकाएं लिखी हैं । परीक्षामुख की लघुतम इकाई इसकी तीन टीकाएँ हैं : प्राचार्य प्रभाचन्द्र४ की प्रमेय- है सूत्र१३ और तीन से सन्तानवे सूत्रों तक१४ के रह कमलमार्तण्ड५, प्राचार्य लघु-अनन्तवीर्य६ की प्रमेयरल- अध्याय हैं जिन्हें परिच्छेद नाम दिया गया है। प्रमेयमाला७ और पण्डितार्य अभिनव-चारुकीर्ति की, प्रमेय- -
६. इसे पहिले प्रमेयरत्नमालालंकार समझकर प्रमेयरत्न१. इसका प्रकाशन विभिन्न संस्थाओं से सटीक या माला की टीका माना जाता रहा है। विशेष विवरण सानुवाद लगभग पन्द्रह बार हो चुका है।
के लिए देखिए, उपर्युक्त ।। २. इनका समय ९१३ से १०३५ ई० तक माना जाता
१०. इसका समय १३वीं शती ई. के प्रासपास होना है। देखिये पं० दरबारीलाल जी कोठिया : माप्त
चाहिए। देखिए,पं० के० भुजबली शास्त्री:प्रशस्तिपरीक्षा, प्रस्ता., पृ० ३३ ।
संग्रह, पृ. २। ३. इनकी कोई अन्य कृति हो या न हो, पर उपलब्ध
११. यह अभी तक अप्रकाशित है और मैं स्वयं इसका नहीं है।
सम्पादन कर रहा हूँ। विशेष परिचय के लिए ४. समय १८० से १०६५ ई. तक। देखिये, स्व.
देखिए, उपर्युक्त तथा जैन सन्देश के शोधांक (१४ पं. महेन्द्र कुमार जी : प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रस्तावना,
मार्च '६३ के पृ० १९३) में मेरा लेख। पृ. ६७ और भागे। ५. इसके दो संस्करण, निर्णयसागर प्रेस बम्बई से १२. इसके और प्रमेयरलालंकार के लेखक एक ही निकले है : प्रथम स्व. पं० बंशीधर जी शास्त्री
व्यक्ति हैं । उन्होंने अपनी, प्रमेयरत्नमाला की टीका द्वारा संपादित होकर १९१२ ई० में और द्वितीय स्व.
अर्थ प्रकाशिका (जैन सिद्धान्त भवन, पारा की पं० महेन्द्र कुमार जी द्वारा संपादित होकर १९४१
प्रति, के पत्र १०, पार्श्व १ पर लिखा है, 'न्याय
मणिदीपिकाप्रकाशे एतत्सूत्रव्याख्यायां च विस्तरेणाई० में। ६. समय ११वीं शताब्दी ई० । देखिए, सिद्धिविनिचश्य
स्माभिरभिहितो वेदितव्यः ।' इसकी पाण्डुलिपि जिन टीका, प्रस्ता. पृ०८०।
विद्वान् महानुभावों की दृष्टि में हो वे कृपया मुझे
सूचित करें ऐसी प्रार्थना है । ७. इसका प्रकाशन विभिन्न संस्थाओं से लगभग पांच वार हो चुका है।
१३. विस्तृत अर्थ और संक्षिप्त शब्दों के कारण ये सूत्र ८. श्रवणवेलगुल के मठाधीशों का यह परम्परागत नाम
महर्षि पाणिनि और प्राचार्य उमास्वामी के सूत्रों की है। प्रस्तुत टीकाकार का समय १८वीं शती ई० कोटि म बात है। माना जाता है । देखिए, जैन सन्देश का शोधांक, १४. छहों परिच्छेदों में क्रमशः १३, १२, ६७, ६, ३ १४ मार्च '६३, पृ० १६३ ।
और ७६ तथा कुल मिलाकर २१० सूत्र हैं।