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________________ यशस्तिलक कालीन प्राधिक जीवन अरे भाई, बेचना हो तो इधर लामो। 'सरकार, वेचना अपने सात बहुमूल्य रत्न रखकर विदेश यात्रा के लिए ही तो है। माप अपनी अंगूठी बदले में मुझे दे दें, तो मैं गया था; किन्तु दुर्भाग्य से लौटते में उसका जहाज समुद्र इसे दे दूं। उसने उत्तर दिया और उस पंडित ने अंगूठी में डूब गया। संयोग से वह बच गया और पाकर श्रीभूति देकर बकरा ले लिया। से अपने रत्न मांगे । श्रीभूति ने न्यास को तो नकारा ही, वस्तु विनिमय की सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि साथ ही भद्रमित्र को बहुत ही बुरा-भला कहा और उल्टा ले जाकर राजा के पास पेश कर दिया५१ । जो वस्तु आपके पास है उस वस्तु की अावश्यकता उस व्यक्ति को हो जिस व्यक्ति की वस्तु पाप लेना चाहते हैं। भूति : इसी आवश्यकता की तीव्रता या मन्दता के आधार पर भूति या नौकरी के प्रति माधारणतया लोगों की वस्तु विनिमय का आधार बनता था। धारणा मच्छी नहीं थी, प्रत्युत इसे निद्य माना जाता न्यास: था ५२ । इसका मुख्य कारण यह था कि भृत्य या सेवक कार्य करने के विषय में अपने मालिक के निर्देश पर प्रवसोमदेव ने न्यास या धरोहर रखने का उल्लेख लंबित रहता है और उसका अपना मन या विवेक वहाँ किया है । भद्रमित्र विदेश यात्रा के लिए गया तो प्राचार, काम नहीं देता। अनेक प्रसग ऐसे भी पाते हैं जब भत्य व्यवहार और विश्वास के लिए विश्रुत श्रीभूति के पास उसकी पत्नी के समक्ष सात अमूल्य रत्न न्यास रख को अपनी इच्छा के विपरीत भी कार्य करने पड़ते हैं। गया४६। उसी समय यह धारणा बनती है कि नौकरी करने वाले का सत्य जाता रहता है । करुणा के साथ धर्म भी समाप्त न्यास रखते समय यह अच्छी तरह विचार लिया हो जाता है, केवल नीच वृत्तियों के साथ पाप ही शाप की जाता था कि जिस व्यक्ति के पास न्यास रखा जा रहा है तरह चिपटा फिरता है५३ । वह पूर्ण प्रामाणिक और विश्वासपात्र व्यक्ति है। इतना होने पर भी न्यास रखते समय साक्षी अपेक्षित समझी वास्तव में बात यह है कि नौकरी तो एक प्रकार का जाती थी५०। सौदा है। नौकर अपने सौजन्य, मैत्री और करुणा-रूप मणियों को देता है, तो मालिक में उसके बदले में धन कभी-कभी ऐसा भी होता था कि जिस व्यक्ति के पाता है। यदि न दे तो उसे धन भी न मिले क्योंकि धन पास न्यास रखा गया है, उसकी नियत खराब हो जाए ही धन कमाता है५४ । और वह यह भी समझ ले कि न्यासकर्ता के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिससे वह कह सके कि उसने उसके ५१. कल्प २७ । पास अमुक वस्तु रखी है, तो वह न्यास को हड़प जाता ५२. ग्राः कष्टा खलु शरीरिणां मेवया जीवनचेष्टा, था। भद्रमित्र सब सोच-समझ कर श्रीभूति के पास पृ०१३९ । सेवावृत्तः परमिहपरं पातक नास्ति किचित्, वही ४८. अरे मनुष्य, समानीयतामित इतोऽयं छागस्तव चेदस्ति ५३. सत्यं दूरे विहरति गम साधुभावेनपुमां, विक्रेतुमिच्छा इति । पुरुषः भट्ट, विचिक्रीपुरवैन यदि धर्मदिचत्तात्महकरुणया याति देशान्तगणि । भवानिद मे प्रसादी करोत्यगुलीयकम् । पापं शापादिव च तनुने नीचवतन माई, पृ० १३१ उत्त। सेवावृनै पमिह परं पातक नास्ति किचित् ॥ वही ४६-५०. विचार्य चाति चिरमुपनिधिन्यासयोग्यमावासम् ५४. सौजन्यमैत्रीकरुणामणीनां व्ययं न चेत् भृत्यजन: उदिताचारसेव्योऽवधारितेतिकर्तव्यस्तस्याखिललोकश्ला करोति। ध्यविश्वासप्रसूतेः श्रीभूतेर्हस्ते तत्पत्नीसमक्षमनर्घकक्ष- फलं महीशादपि नव तस्य यतोऽर्थमेवार्थनिमित्तमाहु॥ मनुगताप्तकं रत्नसप्तकं निधाय, पृ० ३४५ उत्त० । वही
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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