________________
कापण
वजन बताया है। बहुत प्राचीन सुवर्ण उपलब्ध नहीं होते कार्षापण प्राचीन भारत का सबसे प्रसिद्ध सिक्का था। फिर भी गुप्त युग के जो सुवर्ण सिक्के मिले हैं उनका यह चांदी का बनता था। मनुस्मृति में इसे ही धरण और वजन प्रायः इतना ही है४३ । राजत पुराण (चांदी का पुराण) भी कहा है३८ । पाणिनि
सुवर्ण के उल्लेख प्राचीन साहित्य और शिल्प समान ने इन सिक्कों को राहत कहा है३६ । उसी के अनुसार ये रूप से पाये जाते हैं । श्रावस्ती के प्रनाथ सिंडक की कथा अंगरेजी में पंच मावई के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये सिक्के प्रसिद्ध है। अनाथपिंडक बौद्ध सघ के लिए एक विहार बुद्ध युग से भी पुराने हैं तथा भारतवर्ष में प्रोर से छोर बनाना चाहता था। इसके लिये उसने जो जमीन पसन्द तक पाये जाते हैं । अब तक लगभग पचास सहन से भी की वह जेत नामक एक राजकुमार की सम्पत्ति थी। अधिक चांदी के कार्षापण मिल चुके हैं४० ।
मनाथपिडक ने जब जेत से उस जमीन का दाम पूछा तो मनुस्मृति के अनुसार चांदी के कार्षापण या पुराण का
उसने उत्तर दिया कि आप जितनी जमीन लेना चाहें, वजन बत्तीस रती था। सोने या तांबे के कर्ष का वजन
उतनी जमीन पर मूल्य स्वरूप सुवर्ण बिछाकर ले लें। अस्सी रत्ती था।
अनाथपिंडक ने अठारह करोड़ सुवर्ण बिछाकर उस जमीन
को खरीद लिया। कार्षापण की फुटकर खरीज भी होती थी। अष्टाध्यायी, जातक तथा अर्थशास्त्र में इसकी सूचियाँ आई हैं।
भरहत के बौद्ध स्तूप में इस कथा का अंकन प्रा है। अष्टाध्यायी में कापिण को केवल पण कहा है। इसके
एक परिचारक छकड़े पर से सिक्के उतार रहा है। एक अर्घ, पाद, त्रिमाप, हिमाष, अध्यर्ध या डेढ़ माप, माप
दूसरा उन सिक्कों को किसी चीज में उठाकर ले जा रहा और अर्धमाप का उल्लेख है । कात्यायन ने इनमें काकणी
है। दूसरे दो परिचारक उन सिक्कों को जमीन पर बिछा और अर्धकाकड़ी नाम और जोड़े हैं , जातकों में कहा पण
रहे है ४४ । बौद्धगया के महाबोधि मन्दिर के स्तम्भों में अड्ढ, पक्ष या चनारोमासका, तयोमासका, द्वैमासका,
भी इसी तरह के चित्र है४५ । एकमासका और अड्ढमासका नाम आए हैं । अर्थशास्त्र में
सोमदेव के उल्लेख से ज्ञात होता है कि दशमी शती पण, अर्धपण, पाद, अष्टभाग, माणक, अर्धमाणक, काकणी
तक सुवर्ण मुद्रा का प्रचार था। सोमदेव ने लिखा है कि तथा अर्धकाकडी नाम आये हैं४१ ।
पल का व्यवहार सुवर्ण दक्षिणा में था४६ । सुवर्ण
वस्तु-विनिमयनिष्क की तरह सुवर्ण एक सोने का सिक्का था।
वस्तु विनिमय में एक वस्तु देकर लगभग उसी मूल्य मनगढ़ सोने को हिरण्य कहते थे और उसी के जब सिक्के
__ की दूसरी वस्तु ले ली जाती थी। भद्र मित्र सुवर्ण द्वीप के
का दूसरा पर ढाल लेते तो वे सुवर्ण कहलाते थे४२।
व्यापार के लिए गया तो वहाँ से अपनी पसन्द की अनेक सुवणं का वजन मनुस्मति के अनुसार प्रस्सी रत्ती या वस्तुओं को वस्तु विनिमय में संग्रहीत किया४७ । सोलह माशा होता था। कौटिल्य ने एक कर्प अर्थात एक अन्य प्रसंग में आया है कि एक गड़रिया एक प्रस्सी गुजा (लगभग १५० ग्राम) के बराबर सुवर्ण का बकरा लिये था। यज्ञ करने के इच्छुक एक पंडित ने पूछा,
३८. द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो गैप्यमापक, ते पोडश ४३. अग्रवाल-पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० २५३ ।
स्याद्धरणं पुगणश्चंव राजत । ८।१३५-३६ ४४. कनिंघम-स्तूप प्रॉव भरहुत, पृ०६४। ३६. अष्टाध्यायी, श२।१२०
४५. कनिवम-महाबोधि, पृ० १३ । ४०, अग्रवाल, पाणिनिकालीन भारतवर्प, पृ० २५६ ४६. पलव्यवहारः सुवर्णदक्षिणासु, पृ० २०२। ४१. वहीं
४७. प्रगण्यपण्यविनिमयेन तत्रत्यमचिन्त्यमात्माभिमतवस्तु४२. भण्डारकर-प्राचीन भारतीय मुद्रा शिल्प, पृ०५१ स्कन्धमादाय, पृ० ३४५ उत्त०।