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________________ १३० अनेकान्त किया है। कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है : कारण अग्नि से तपे हुए धी से सिंचन करने से उनसठ कवित्त परिल्ल बत्तीस सुबेसरि छंव निवै भरतीन। समुत्पन्न देह-दाह के समान इन्द्रि-सुखों को प्राप्त करता बस पढरी चारि रोडकमानि, सब चालीस चौपई कीन। है। यही सब भाव टीकाकार ने अपने पद्यों में व्यक्त बोहा छन्द तीनस साठा तामें एक कीजिए हीन। गीता सात पाठ कुंडलिया एक मरहठा मिनहु प्रवीन ॥ दोहा-शुद्ध स्वरूपाचरणते, पावत सुख निरवान । छप्पय-बाईसा भनि चारि पांचसौ चौईसा कहिए। शुभो पयोगी प्रात्मा, स्वर्गादिक फल जान ।। इकतीसा बत्तीसा एक पच्चीसौं लहिए । वेसरि छन्दछप्पय गनि तेईस छन्द फुनि सामबिलंवित । विषय-कषायी जीवसरागी, कर्मबन्ध की परिणति जागी। जानह बस पर सात सकल तेईसा परमित ॥ तह शुद्ध उपयोग विवारी, तात विविध भांति संसारी ॥ सोरठा-छन्द तेतीस सब सात सतक पच्चीस हुव।। तपत घोव सींचत नर कोई, उपजत दाह शान्ति-नहि होई। प्रवचनसार एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है, जिसमें तीन स्योंही शभ उपयोग दुख माने, देव-विभूति तनक सुख मानं ॥ मधिकार हैं, उनमें ज्ञान ज्ञेयरूप तत्त्वज्ञान के कथन के सभोपयोगी सकति मुनिराई, इंद्रियाधीन स्वर्ग सुखदाई। साथ जैन यत्याचार का बड़ा ही रोचक और सुन्दर कथन छिनमें होई जाय छिनमाह, शुद्धाचरण पुरुष क्यों चाहै ।। दिया हुआ है। ग्रन्थ की भाषा प्राचीन प्राकृत है, और इसयमादसमुत्थं विषयातीदं प्रणोवम मणतं । बड़ी ही परिमाजित है। और वह प्राचार्य कुन्दकुन्द के अध्यच्छिण्णं च सुह सुद्धवप्रोगप्पसिद्धाणं ॥११२॥ अन्य सभी ग्रन्थों की भाषा से प्रौढ़ है। और गाथाएँ इस गाथा में शुद्धोपयोग का फलनिदिष्ट करते हए गम्भीर प्रर्थ की द्योतक है। इसमें प्राचार्य कुन्दकुन्द की दार्शनिक दृष्टि के दर्शन होते है। इसका दूसरा अधिकार बतलाया गया है कि परमवीतराग रूप सम्यक्चारित्र से 'ज्ञेयाधिकार' नाम का है, जिसमें ज्ञेयतत्त्वों का सुन्दर निष्पन्न अगहन्त सिद्धों को जो सुख प्राप्त है वह इन्द्रादि विवेचन किया गया है। कथन-शैली अत्यन्त प्रौढ़, तथा के इन्द्रियजन्य सुखों से अपूर्व आश्चर्यकारक पंचेन्द्रियों के गम्भीर एवं संक्षिप्त है । ऐसे कठिन प्रन्थ का कवि ने जो विषयों से रहित, अनुपम, प्रात्मोत्थ, अनन्त (अविनाशी) प्रव्युच्छिन्न (वाधारहित) है-उस सुखामत के सामने पद्यानुवाद करने का प्रयत्न किया है वह उसमें कहाँ तक। सफल हुआ है । उसके सम्बन्ध में यहाँ कुछ न कहते हुए संसार के सभी सुख हेय एवं दुःखद प्रतीत होते है, क्योंकि वे सुग्वाभास हैं। इसी भाव को कवि ने निम्न पद्यों मे पाठकों की जानकारी के लिये कुछ गाथाम्रो का पद्यानुवाद दिया जाता है, जिससे पाठक कवि को कविता और अकित किया है :उसके प्रयत्न की सफलता का विचार करने में समर्थ सबही सुखतें अधिक सुख, है प्रातम प्राधीन। हो सकें। विषयातीत बाधारहित, शुद्धचरण शिव कोन ॥ घम्मेण परिणदप्पा अप्पा अदि सुद्ध-संपयोगजुदो। शुद्धाचरण विभूतिशिव, अतुल प्रखण्ड प्रकाश । पावदि णिब्याणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्ग-सुहं ॥१॥ सदा उ नये करम लिये. दरसन ज्ञान विलास ॥ इस गाथा में बतलाया गया है कि जब धर्मस्वरूप वेसरिपरिणत यह पात्मा शुद्ध उपयोग से युक्त होता है तब जो परमातम शुद्धोपयोगी, विषयकषाय रहित उरजोगी। मोक्ष सुख प्राप्त करता है। किन्तु जब वह धर्मपरिणति करननऊतम पुरवभान, सहज मोक्षको उद्यम ठानं ।। के साथ शुभोपयोग में विचरण करता है-रागवर्द्धक इन्द्रिय निस्यंव पुण्य-सुख, सबै इन्द्रियाधीन । दान, पूजा, व्रत संयमादि रूप भावों में प्रवृत्त होता है तब शुद्धाचरण प्रखण्डरस, उद्यम रहित प्रवीन । उसके फलस्वरूप वह स्वर्गादिक मुखों का पात्र बनता जाहं होमि परेसि ण मे परे सन्ति गाण हमेको । है-वह विषय कषायरूप सरागभावों में प्रवृत्त होने के इदि जो झायवि झाणे सो प्रप्पाणं हववि झावा ॥२-६६
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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