________________
हेमराज नाम के दो विद्वान
१३७
का समय पूर्ववर्ती है। और नन्दलाल श्रावक का अपेक्षाकृत एक सभा अथवा शैली थी, जिसमें स्थानीय अनेक सज्जन अर्वाचीन । प्राशा है डाक्टर साहब इस पर विचार प्रतिदिन भाग लेते थे। इस शैली का प्रधान लक्ष्य करेगे। पांडे हेमराज का सम्बन्ध प्रागरा से है जब कि अध्यायात्म ग्रन्थों का पठन-पाठन करना और तत्व चर्चा दूसरे हेमराज का सम्बन्ध कामा और सांगानेर से है। द्वारा उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा कर जैनधर्म के आगरा से नहीं।
प्रचार के साथ-साथ प्रात्म उन्नति करना था। उस समय दूसरे हेमराज वे हैं, जो सांगानेर (जयपुर) के भारत में जहाँ-तहाँ इस प्रकार की अध्यात्म शैलियां विद्यनिवासी थे। उनकी जाति खडेलवाल और गोत्र भांवसा मान थीं, जिनसे जनता प्रात्मबोध प्राप्त करने का प्रयत्न है । परन्तु उनका व्यक 'गोदी का' कहा जाता था। करती थी। इनके प्रभाव एवं प्रयत्न से जहाँ लोक हृदयों कुछ समय बाद वे सांगानेर से कामा चले आये थे२, जो में जैनधर्म के प्रति आस्था और प्रेम उत्पन्न होता था भरतपुर स्टेट का एक कस्बा है। उस समय कामा में वहाँ अनेकों का स्थिति करण भी होता था-उनकी चल जयसिंह के पुत्र कीर्तिकुमार सिंह का राज्य था, जिसने श्रद्धा में सुदृढ़ता मा जाती थी। उस समय जयपुर, देहली, अपनी तलवार के बल से शवों को जीत कर वश मे किया प्रागरा, सांगानेर प्रादि में ऐसी शैलियाँ अपना कार्य
जो निम्न पदा से प्रकट है :- सूचारु रूप से सम्पन्न कर रही थीं। इससे जहाँ स्थानीय कामागढ़ सूवस जहां, कीरतिसिंह नरेश। लोगों का जैनधर्म के प्रति धर्मानुराग बढ़ता था वहाँ अपने खड्ग बल बसि किये, दुर्जन जितके देश । प्रागन्तुक सज्जनों को धर्मोपदेश का यथेष्ट लाभ भी
और उनके कायस्थ जाति के गजसिंह नामक एक मिलता था। इनके प्रभाव से अनेक व्यक्ति जैनधर्म की सज्जन दीवान थे, जो बड़े ही बहादुर और राजनीति में शरण को प्राप्त हुए थे। शैली के सदस्यों में परस्पर धामिदक्ष थे३ । उन दिनों कामा में अध्यात्म प्रेमी सज्जनों की कता, सदाचारता, वात्सल्य और दूसरों के प्रति प्रादर
पौर प्रेम का भाव रहा करता था, जनता को अपनी १. हेमराज श्रावक खंडेलवाल जाति गोत भावसा प्रगट।
ति भावसा प्रगट और प्राकृष्ट करने में समर्थ होता था उन दिनों कामा व्योंक गोदी का बखानिये ।
की इस शैली के कवि हेमराज भी एक सदस्य थे, जो -प्रवचनसार प्रश० देखो, अनेकांत वर्ष ११ कि०१० निरन्तर
निरन्तर सैद्धान्तिक ग्रन्थों का पठन-पाठन करते हुए तत्त्व२. (क) "सांगानेरि सुथान को हेमराज वस वान। चर्चा के रस मे निमग्न रहते थे। कामा की इस शैली में अब अपनी इच्छा सहित वस कामागढ़ थान ॥" जिन दिनों प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार का वाचन
वही प्रशस्ति। हो रहा था, उन दिनों प्राचार्य अमृतचन्द्र की सस्कृत टीका (ख) "उपजी सांगानेरि को, अब कामागढ़ वास।। का भाव लेकर बनाई हुई हिन्दी टीका का काफी प्रचार वहां हेम दोहा रचे, स्व-पर बुद्धि परकास ॥" था। उस अध्यात्म शैली में जीवराज नाम के एक सज्जन
दोहा शतक जो दया धर्म के धारक तथा प्रवचनसार ग्रन्थ के रसा३. सोभित जयसिघ महासिंह सुत काम,
स्वादी थे। उन्होंने मन में विचार किया कि यदि इस अवनी के भारसौ सुभार पीठ बनी है। प्रवचनसार का पद्यानुवाद हो जाय तो सभी जन उसे ताके घर कीर्तिकुमार ने उदा चित्त,
कंठ कर सकेगे। इसी पवित्र भावना से उन्होंने हेमराज कामागढ़ राजित ज्यों दिन मही है ॥ को प्रेरित किया और हेमराज ने उसका पद्यानुवाद शुरू जहां काम करता दिवान गजसिंधु जाति, किया और उसे संवत् १७२४ में बना कर समाप्त किया।
कायस्थ प्रवीन सबै सभानीति सनी है ॥ पद्यानुवाद में कवि ने कवित्त, अरिल्लछन्द, वेसरी, पद्धड़ी, तहां छहों मनको प्रकाश सुखरूप सदा,
रोड़क, चौपाई, दोहा, गीता, कुण्डलिया, मरहठा छप्पय कामागढ़ सुन्दर सरस छवि बनी है। पौर सवैया तेईसा आदि छन्दों का प्रयोग किया है।
--प्रवचनसार प्रशस्ति जिनके कुल पद्यों की संख्या ७२५ है। जिनका व्योरा