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अनेकान्त
केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही, चार मुखों का विखना, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का युद्ध है । प्रशुभ के द्वारा शुभ केवल ग्रास प्रादि पाश्चर्यों का विवेचन भूधरदास ने नहीं के मार्ग में अनेक बाधाएँ उपस्थित की गई, किन्तु जीत किया है । देवों के १४ प्रतिशय भक्तों की भक्ति ही कही शुभ ही की हुई । सबसे बड़ी विजय तो यह थी कि अंतमें जा सकती है। तीर्थकर के गर्भ मे पाने के छ: मास पूर्व अशुभ भी शुभ-रूप में परिणत हो गया। मरुभूति शुभ का से ही साड़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा का विवेचन भक्त प्रतीक था और कमठ अशुभ का। अशुभ भी साधारण हृदय की ही देन है। यह सच है कि किसी महापुरुष के कोटि का नहीं था। नरको के तीव्र दुखों से भी वह बदल उत्पन्न होने के पूर्व से ही मां-बाप वैभव सम्पन्न हो उठते न सका । सद्गुरुषों के उपदेश और महापुरुषों के दर्शन से हैं । संवर का उपमर्ग और नाग दम्पत्ति का आगमन पूर्व भी उसका चेतनहारा चेतन परिवर्तित न हुआ। तीर्थकर भव से सम्बन्धित किये जाने के कारण अविश्वास की भूमि पाश्वनाथ के समवशरण में ही वह चेता । पुण्य और पाप को स्पर्श नहीं कर पाता।
का युद्ध यद्यपि दस भवों तक चलता रहा, किन्तु पुण्य के जैन संस्कृत और अपभ्रश के महाकाव्यों में प्रायः अहिसक रहने से वीर रस पूर्ण रूप से कभी-कभी प्रकट स्थान-स्थान पर धार्मिक उपदेश बहत लम्बे हैं। उनके न हो सका उसके मूलस्वर का हाल शान्त रस की ओर कारण पाठक ऊब जाता है । उनमे यत्किचित भी सरसता ही बना रहा । पार्श्वपुराण का मुख्य रस शांत ही है, वैसे नहीं है । पावपुराण में केवल दो स्थानो पर मुनियों के शृङ्गार और वात्सल्य भी कतिपय अंशों में फलीभूत हुए उपदेश हैं । सल्लकी वन मे मूनि अरविन्द ने वनजंघ हैं। प्रारम्भ में ही कमठ अपने छोटे भाई मरुभूति की हाथी को सम्यक्त्व का उपदेश दिया है। दूसरा स्थान वह पत्नी विसुन्दरी के प्रति काम चेष्टाओं का प्रदर्शन करता है जब आनन्दकुमार जैन दीक्षा लेने मुनि सागरदत्त के है। उसी में सम्भोग शृङ्गार देखा जा सकता है। अन्यत्र पास गये हैं। वहाँ १२ प्रकार के तपो, १६ प्रकार की कहीं भी काम की विह्वल दशा का चित्र नही खींचा गया भावनाओं, २० प्रकार के परीषहों, दशलक्षण धर्मों और है। विविध रानियो के सौदर्य वर्णन है, स्वगों की सुषमा १२ अनुप्रेक्षाग्री का विवेचन किया गया है। किन्तु इनमे में देव और देवांगनायों द्वारा सम्पन्न महोत्सवों में, नगकाव्यत्व होने के कारण रूक्षता नही पा पाई है। १२ रियों की साज सज्जा में और समवशरण की रचना में ही अनुप्रेक्षाओं का वर्णन करते हुए
शृङ्गार के दर्शन होते हैं । इन सब में शृङ्गार शांत रस राजा राणी छत्रपति, हाथिन के प्रसवार । का स्थायीभाव सा प्रतीत होता है। शृङ्गार के मुख्य अग मरना सब को एक दिन, अपनी-अपनी बार ॥ विप्रलम्भ का तो कहीं नाम ही नहीं है। इतना सरस है कि इसका घर-घर में प्रचार है और
पार्श्वपुराण में वात्सल्य रस पार्श्वनाथ के गर्भ और इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। पाश्वं
जन्म कल्याणकों में प्रतिफलित हुया है। उस समय किये नाथ की दिव्यध्वनि के द्वारा जैन सिद्धांत का जन्म
गये विविध महोत्सव वात्सल्य रस को पुष्ट बनात हैं । इन हुमा । यहाँ पर भी नवे अधिकार के अन्त में सप्तभग,
महोत्सवों की परम्परा अजन काव्यो में नहीं थी। सूर ने समुद्धात प्रादि का वर्णन है, किन्तु दृष्टान्त, उपमा और
कृष्ण के जन्म की अानन्द बधाई के उपरांत ही 'यशोदा उत्प्रेक्षाओं की सहायता से उनकी रूक्षता का पर्याप्त
हरि पालने झुलावे' प्रारम्भ कर दिया है । जैनों के प्राकृत परिहार हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है कि भूधरदास को
सस्कृत और अपभ्रश के तीर्थकर संबंधी सभी महाकाव्यो भी इन स्थलों को सक्षेप मे कह कर मुख्य कथा पर माने
में गर्भ और जन्म कल्याणकों का ऐसा ही विवेचन है। की शीघ्रता थी। भूधरदास का कवि प्रमुख था अपेक्षाकृत
किन्नु पार्वपुराण में प्रसाद गुण और उत्प्रेक्षाओं के कारण उपदेष्टा के।
वह मौलिक सा प्रतिभासित होता है। जैन हिन्दी में रस विवेचन
कुमुदचन्द्र के ऋषभ विवाहिता भट्टारक ज्ञानभूषण के पाश्वपुराण में शुभ और अशुभ पुण्य और पाप, प्रादीश्वरफाग, हरचन्द्र के पंच कल्याण महोत्सव, भट्टारक