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________________ भूभरवास का पाश्र्यपुराण : एक महाकाव्य १२. धर्मचन्द की मादिनाथ बेलि, रूपचन्द का पंचमंगल पौर क्षत्रिय कुल में हमा है। वे धीरोदात्त हैं, तीर्थकर हैं। जगतराम के लघुमंगल से भी अधिक सरसता पार्श्वपुराण उन्होंने विवाह नहीं किया, माजन्म ब्रह्मचारी रहे। इस में है । इन्द्राणी प्रसूति-गृह में पहुँची। वहाँ उसने सुतराग प्रकार नायिका का प्रभाव है। वैसे उन्होंने तप और में रंगी मां को सुख सेज पर लेटे देखा, वह ऐसी प्रतीत साधना के द्वारा शिवरमणी के साथ विवाह किया। वह हो रही थी मानों बालक भानु सहित सध्या ही हो। ही उनका प्रथम और अन्तिम विवाह था। इस महाकाव्य इन्द्राणी ने माँ को सुख नींद में सुला दिया और एक माया- में शिवरमणी के रूप का विवेचन हुमा है। जहाँ तक मयी बालक उसके पास लिटा दिया। बालक जिनेन्द्र को भौतिक नायिकानों का सम्बन्ध है वे नायक को पूर्व भवों अपने कर कमलों में उठा लिया। बालक की छवि में उपलब्ध हुई है। वहां यथा-प्रसग उनके सौन्दर्य और करोड़ों सूर्यो को ज्योतिहीन बना रही थी। बालक के विलास का भी यत्किचित निरूपण हमा है। शान्त रस मुख कमल को देखकर सुररानी के हृदय में विशेष हर्ष प्रधान होने के कारण जैन महाकाव्यो की नायिकानो का हमा । इन्द्र ने तो भगवान की सौन्दर्य सुधा पीने के लिए विलास और सौन्दर्य सदेव शालीनता की मर्यादा में बंध सहस्र नेत्र कर लिए। सुमेरु पर्वत पर स्नवन के उपरात रहता है। पाश्वपुराण की नायिकाएँ भी, भले ही वे इन्द्राणी ने जिनवर के अंगों को पोंछकर निर्जल बनाया। मानवी हों या देवांगनाये, इस मर्याद का उल्लंघन नहीं प्रभु की देह पर कुकुमादि अनेक विलेपन किये, ऐसा कर सकी है। प्रतीत होता था जैसे नीलगिरी पर संध्या फूली। शची ने सर्ग और छन्द त्रिलोकीनाथ को और भी अनेक प्रकार से मजाया । उनके प्राचार्य विश्वनाथ के साहित्य दर्पण के अनुसार महासिर पर मणिमय मुकुट रखा, माथे पर चूड़ामणि सुशो- काव्य में कम से कम ८ सर्गों का होना अनिवार्य है। भित किया, स्वाभाविक रूप से अजित नेत्रों में भी अंजन पावपुगण में 6 अधिकार है। कोई भी 'अधिकार' अनलगाया। मणि जड़ित कुन्डल कानों में पहनाये तो ऐसा पयुक्त या अतिरजित नहीं कहा जा सकता। उसमें पार्श्वमालम हा कि चन्द्र और सूर्य ने ही अवतार लिया हो। नाथ की कथा एक प्रवाह में निबद्ध है । महाकाव्य का एक भुजात्रों में भुजबंध, कमर में कर्धनी व परों में रत्नजडित नियम यह भी है कि एक सर्ग एक ही छन्द में हो, अन्तिम नूपुर भी सजा दिये। अंग-पग में आभूषण पहने भगवान् छन्द बदला हुअा हो उस बदले हुए छन्द में ही प्रागामी की शोभा उस कल्पवक्ष के समान थी, जिसकी डाले भूषण सगं प्रारम्भ हो । पाश्वपुराण में इस नियम का पालन भूषित हों। बाल भगवान कुछ बडे हए। अनेक मुख से नहीं किया गया । यद्यपि अधिकाशतया चौपाई और दोहे निकलने वाली कोमल हँसी तात-मात को मानन्दित को शान्ति का प्रयोग है किन्तु बीच-बीच में मोरठा, अडिल्ल, छप्पय, करती थी। भगवान मणिमय प्रांगन में घटनो के बल कवित्त, पद्धड़ी और गीता नाम के छन्दो का भी मनिवेश मे नत्र गगन में हुआ है। चौपाई और दोहे वाला म भी रामचरितमानस निशिनाथ ही विचर रहे हों। वे कांपते हए चरणो से जसा नहा है । इसम एक या कई चौपाइयो के उपरान्त चलते थे, वह इस शंका से शायद धरती मेरे बोझ को । एक या कई दोहे पाये हैं। कही-कही चौपाइयाँ ही हैं, सहन न कर सके । मुट्ठी बांधे और अटपटे पैरों से चलते दोहे नहीं। कही दोहे ही हैं, चौपाइयाँ नही। भूधरदास भगवान की छवि अवर्णनीय है । इस भाँति बालकोचित छन्दों के निर्माण में अत्यधिक निपुण थे । कथानक, चरित्र, घटना और प्रसंग के अनुकूल ही छन्दों को चुना गया है। अनेक चेष्टानों का वर्णन है। किन्तु भूधरदास सूरदाम वे महाकाव्य की गति के लिए प्रशस्त मार्ग से प्रतीत जैसी बालक की विविध मनोदशानों का चित्रण नहीं कर सके हैं। होते हैं। अलंकार नायक सरल भाषा में अलंकागे का निर्वाह भी सहज ही इस महाकाव्य के नायक पाश्र्वनाथ हैं। उनका जन्म हमा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भूधरदास अलंकारवादी
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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