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________________ १२४ नहीं थे। उन्होंने अलंकार लाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। उनके सभी काव्यों में अलंकारों की छटा स्वाभाविक है। पार्श्वपुराण में उत्प्रेक्षा का प्रयोग सबसे अधिक हुआ है। १६ स्वप्न देखने के उपरान्त यामादेवी जयी तो उनका तन रोमांचित था और मुख प्रमुदित, जो ऐसा प्रतीत होता था मानो निशा के अवसान में सकंटक कमलिनी विकसित हुई हो । १ माँ की सेवा करने के लिये कुलगिरि कमल वासिनी देवियाँ ग्राकाश से उतर रही है, तो ऐसा मालूम होता है मानो नभदामिनी ही उतर रही हो उत्प्रेक्षा के उपरान्त दृष्टान्तानकार का भी अधिक प्रयोग है। जैसे कि सीप मे मोती धाकर उत्पन्न होता है, निर्मल गर्भ मे निराबाध भगवानर एक दूसरे स्थान पर अचेतन जिन बिब के सुख प्रदाता रूप की व्याख्या करते हुए कवि ने कहा है कि जैसे चिन्तामणि मनवांछित पदार्थों को देता है. वैसे ही यह जिन बिम्ब मनोवांछान को पूरा करता है। भूधरदास छोटे-छोटे रूपको के निर्माण में भी कुशल थे। जगवासी मोहनिद्रा में निमग्न है, कर्म चोर उनका सर्वस्व लुटने के लिए चारों ओर घूम रहे हैं ३ | सतगुरु के जगाने पर मोह निद्रा दूर हो जाती है और बाते हुए कर्मचोरों को रोकने का कुछ उपाय बनता है। जब ज्ञानरूपी दीपक मे तपरूपी तेल भरकर, घर के भ्रमरूपी कोनो को शोध डाला, तभी वं कर्मरूपी चोर निकल सके४ सूधरदास ने शब्दालंकारों पर ध्यान नहीं दिया है। भैया भगवतीदास और कवि बनारसीदास जैसी अनुप्रास छटा पार्श्वपुराण में नहीं है। धनेकान्त १ जिन जननी रोमांचि तन, जर्ग मुदित मुल जान किधौ सकंटक कमलनी विकसी निसि अवसान ॥ पंचमोऽधिकार पृ० सं० ४७ २ जथा सीप सम्पुट विषं, मोती उपजं प्रान । त्योंही निर्मल गर्भ में, निराबाध भगवान ॥ ३ मोह नीद के जोर, जगवासी घूमें सदा । कर्मयोग और सरवस लूटे सुध नहीं ॥ ४ ज्ञान दीप तप तेल भरि घर सोधे भ्रम छोर । या विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर ॥ धिकार ३० प्रकृति निरूपण महाकाव्यों में प्राकृतिक दृश्यों का अकित किया जाना भी आवश्यक है। हिन्दी के कतिपय महाकाभ्यों में प्रकृति वर्णन केवल परम्परा निर्वाह के लिए ही करते हैं। अतः धन, पर्वत, समुद्र, मेघ, वृक्ष प्रादि का चित्र किसी असफल चित्रकार की रचना सा प्रतीत होता है। यह ही कारण है कि वनों में फैली ऋतुराज की सुषमा, पर्वतों पर निर्झरों का कलनाद, समुद्र में चंचल तरंगों का नृत्य, मेघ का रिमझिम बरसना तथा वृक्षों की डालों पर पल्लवों का विकास काव्य में नहीं उतर पाता। पार्श्वपुराण में वन और परंतों का सर्वाधिक वर्णन है। इन्हीं दो स्थानों पर मुनिराज तप करते हैं प्रथवा तीर्थकरों का समवशरण विराजता है आरम्भ में ही वनमाली, महाराज श्रेणिक को सूचना देता है कि विपुलाचल पर भगवान महावीर का समवशरण पाया है। इस श्रागमन से छः ऋतुस्रों के फलों से बन सुशोभित हो गया है। थागे चल कर काशी देश के गांव खेटपुर पट्टन का वर्णन है । उसके समीप अगाध जल से भरी नदियां बहती है। उनमें घनेक जलचर जीव नित्य रहते हैं। ऊंचे पर्वतों पर करने भरते हैं, जो मार्ग में जाते हुए पथिकों के मन को श्रापित कर लेते हैं। पर्वनों की कन्दराधों में मुनिजन निश्चल देह से ध्यान धारण करते हैं। वहाँ बड़े बड़े निर्जन वनो के समूह भी है जिनमे विविध प्रकार के विशाल वृक्ष लगे है। केला, करपट, कटहल, कैर, केथ, करोंदा, कोच, कनेर आदि लगभग ७० वृक्षो के नाम गिनाये हैं, किन्तु अनुप्रास के प्रवाह में वृक्षों के नामों की सूची भी सरस सी प्रतिमामित होती है १ । 1 पार्श्वपुराण भूषरवास जिणवाणी कार्यालय कलकत्ता १. जहाँ बड़े निर्जन वन जल जिनमें बहुविधि विरद्ध विशाल ॥ केला करपट कटहल कैर । कंथ करोदा कोंब कर्नर ॥ किरमाला ककोल कल्हार । कमरख कज कदम कचनार ॥ खिरनी खारक पिंडखजूर । संर लिरहूटी बेजड़ भूर ॥ पंचमोधिकार पृ० सं० ४३
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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