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________________ वर्णी जी का आत्मालोचन और समाधि - संकल्प श्री नीरज जैन पूज्य वर्गीजी अपनी साधना के प्रति सदैव जागरुक, परम निस्पृह और एक सतर्क साधक थे। उन्होंने जिस निर्भीकता पूर्वक समय समय पर अपनी स्वयं की समालोचना की है और जिस दृढतापूर्वक ग्रात्मनिग्रह का संकल्प किया है वह साधकों के लिये सदैव अनुकरणीय और श्रादर्श रूप रहेगा। वे प्रायः प्रतिदिन बड़ी स्पष्टतापूर्वक अपने विचारों का लेखा-जोखा लगाकर अपनी उपलब्धियों को तौल कर, हानि-लाभ का अन्दाजा लगाया करते थे। उनकी यह ग्राम थालोचना की कथा जहाँ तहाँ उनके समीप चर्चा वार्ता में तो प्रकट होती ही थी, कभी कभाक लेखनी से भी उसका प्रकटीकरण हो जाता था। उनकी बहुत नियमित निसी जाने वाली नंदिनी में तो अनेक स्थानों पर ऐसी सामग्री देखी जा सकती है । करने में भी समर्थ हुई हो। यद्यपि धाप सावधान है परन्तु जबतक इस शरीर से ममता है तब तक सावधानी का भी ह्रास हो सकता है । आपने बालक पन से ऐसे पदार्थों का सेवन किया है जो स्वादिष्ट थे और उत्तम थे । इस का मूल कारण यह था कि आपके पूर्व पुण्योदय से श्री रोजाबाई का संसर्ग हुआ। तथा धीयुत सर्राफ मूलचन्द्र जी का संसर्ग हुआ । जो सामग्री आप चाहते थे, इनके द्वारा आपको मिलती थी आपने निरन्तर देहरादून से चावल मगाकर खाये, उन मेवादि का भक्षण किया जो धन्य होन पुण्य वालों को दुगंभ थे तथा उन तैलादि का उपयोग किया जो धनाढ्यों को हो सुलभ थे । तुमने यह धनुचित कार्य किया किन्तु तुम्हारी धारमा में चिर काल से एक बात प्रति उत्तम थी कि तुम्हें धर्म की दृढ़ श्रद्धा और हृदय में दया थी। उनका उपयोग तुमने सर्वदा किया। तुम निरन्तर दुखी जीव देखकर उत्तम से उत्तम वस्त्र तथा भोजन उनको देने में संकोच नहीं करते थे, यही तुम्हारे श्रेयमार्ग के लिये एक मार्ग था । न तुमने कभी मनोयोग पूर्वक अध्ययन किया, न स्थिरता से पुस्तकों का अवलोकन ही किया, न चरित्र का पालन किया और न तुम्हारी शारीरिक क्षमता चरित्र पालन की थी। तुमने केवल आवेग में आकर व्रत ले लिया । व्रत लेना और बात है और उसका श्रागमानुकूल पालन करना अन्य बात है । हुमा था। केवल महाकाव्य ही नहीं, साहित्य के सभी अगों का उद्देश्य उत्तम चरित्र की जीत दिखाना था । पार्श्वपुराण में भी उत्तम और निकृष्ट चरित्रों की कशमकश दिखाई गई है। यदि इसे हिंसा और महिला का युद्ध कहें तो भी ठीक ही है। धन्त मे जीत उत्तम पात्र की हुई। यह जीत भौतिक नहीं है शिवरमणी के साथ विवाह हो उसकी जीत है। प्रतिद्वन्दी भी भाग कर पलायन नहीं करता, न मरता ही है परन्तु पार्श्वनाथ के मत में उद्देश्य - उस समय 'कला के लिए कला का धाविर्भाव नहीं दीक्षित होकर, उन्हीं के मार्ग पर चल पड़ता है। व जी का पत्र, वर्णों जी के नाम :--- सर्वप्रथम इस प्रकार की सामग्री उनके एक पत्र के रूप में मिलती है जो उन्होने अपने श्राप को माघ शुक्ला १३ मं० १६६६ को लिखा था : श्री मान् वर्णी जी, योग्य इच्छाकार बहुत समय से भाप के समाचार नहीं पाये, इससे चित्तवृत्ति सदिग्ध रहती है कि प्रापका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है । सम्भव है आप उससे कुछ उद्विग्न रहते हों और यह उद्विग्नता आपके अन्तस्तत्व की निर्मलता के कृश संवर ज्योतिषीदेव के उपसर्ग में प्रकृति की दशा विश्यत उपस्थित की गई है। चारों घोर अंधकार छा गया । बादल गरज गरज कर घनघोर वर्षा कर उठे । नीर मूसलोपम घार में भर उठा, भयंकर बिजली चक्ररूप में चमक उठी । अत्यधिक वर्षा मे गिरि, तरुवर और वनजाल डूब गये और प्रभजन विकराल होकर वह उठा ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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