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________________ अनेकान्त १२६ लोग तो भोले हैं वाचाल और बाह्य से संसार प्रसार है, ऐसी कायकी चेष्टा से जनाते हैं उन्हीं के चक्र में श्रा जाते हैं। उन्हीं को साधुपुरुष मानने लगते हैं और उनके तन, मन, धन से प्राज्ञाकारी सेवक बन जाते हैं। वास्तव में न तो धर्म का लाभ उन्हें होता है और न श्रात्मा में शान्ति ही का लाभ होता है। केवल दभिगणों की सेवा कर अन्त में दम्भ करने के ही भाव हो जाते हैं। इससे श्रात्मा प्रधोगति का ही पात्र होता है । इस जीव को मैंने बहुत कुछ समझाया कि तू परपदार्थों के साथ जो एकत्वबुद्धि रखता है उसे छोड़ दे परन्तु यह इतना मूढ़ है कि अपनी प्रकृति को नहीं छोडता, फलतः निरन्तर धाकुलित रहता है। क्षणमात्र भी चैन नहीं पाता ।" आपका शुभचिन्तकगणेश वर्णी- (वर्णी वाणी, ४-२ ) क्षुल्लक वेष धारण कर लेने के उपरान्त भी अपने गत समस्त जीवन का सिंहावलोकन करते हुए एक जगह उन्होंने लिखा है "अन्य की कथा कहाँ तक लिखे ? हमारी ८० वर्ष की धायु हो गई और ५० वर्ष से निरन्तर इसी प्रयत्न में तत्पर हैं कि मोह शत्रु को परास्त करें, परन्तु जितनी बार प्रयास किया बराबर धनुत्तीर्ण होते रहे। बालकपन में तो माता पिता के स्नेह में दिन जाते थे, मेरी दादी मुझ पर बहुत स्नेह करती थी। इसी तरह रात्रि दिन काल व्यतीत करते थे । परलोक का कोई विचार न था। जब कुछ पण्डितों का समागम हुआ। तब कुछ व्यवहार धर्म में प्रवृत्ति हुई । भगवान की पूजा और पद्मपुराण का श्रवण कर अपने को धर्मात्मा समझने लगे। कुछ दिन बाद वन करने लगे, रात्रि भोजन त्याग दिया, कभी उस परित्याग करने लगे । व्रत इतने में पिता जी ने विवाह कर दिया। कुछ ही दिनों में मेरी माँ ने मेरी पत्नी को ऐसे रंग में रंग दिया कि वह हमसे कहने लगी कि अपनी परम्परा में अपने धर्म का परित्याग कर तुमने जो धर्म अंगीकार किया उसमें बुद्धिमता नहीं की । हम भौर हमारी पत्नी में ३६ का सा ( परस्पर विरुद्ध ) सम्बन्ध हो गया । फिर हम टीकमगढ़ प्रान्त में चले गये और वहीं एक पाठशाला में अध्यापकी करने लगे । दैवयोग से वही पर श्री चिरोंजा बाई के सिमरा गये । धर्ममूर्ति बाई जी ने बहुत सान्त्वना दी तथा एक प्रपढ़ क्षुल्लक के चक्र से रक्षा की। पढ़ने की सम्मति दी किन्तु कहा शीघ्रता मत करो, मैं सब प्रबन्ध कर भेज दूंगी। परन्तु मैंने शीघ्रता की छा न हुन । अन्त में अच्छा ही हुआ । अच्छे अच्छ महापुरुपो और पण्डितों का समागम हुआ, तत्वज्ञान के व्याख्यान सुने, व्यवहार धर्म में प्रवृत्ति हुई, तीर्थयात्रा श्रादि सब कार्य किये; परन्तु शान्ति का श्रास्वाद न श्राया । मन में यह आया कि सबसे उत्तम कार्य विद्या प्रचार करना, जो जाति से युत हो गये हैं उन्हें पंचायत द्वारा जाति मे मिलाना, जो दस्से हैं उन्हें मन्दिरों में दर्शन करने में जो प्रतिबन्ध है उन्हें हटाना तथा जो बाई जी द्वारा मिले उसे परोपकार में दे देना चादि सब किया भी परन्तु शान्ति का अंश भी न श्राया । इन्ही दिनों में बाबा भागीरथ जी का समागम हथा, प्रापके निर्मल त्याग का आत्मा के ऊपर बहुत ही प्रभाव पड़ा। मैं भी देखा-देखी निरन्तर कुछ करने लगा परन्तु कुछ मफलता नहीं मिली । अन्त मे यही उपाय सुभा जो सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये । यद्यपि उपवासादिक की शक्ति न थी बहुत फिर भी यद्वा तद्वा निर्वाह किया। वार्ड की मे विरोध किया- ' बेटा तुम्हारी शक्ति नही परन्तु एक न मानी; फल जो होना था नहीं हुआ। लोग न जाने क्यो मानते रहे । काल पाकर बाई जी का स्वर्गवास हो गया । तब मैं श्री मोतीलाल जी वर्णों और कमलापति सेठ के समागम में रहने लगा । रेल की मवारी त्याग दी । मोटर की सवारी श्री पहिले ही त्याग दी थी। अन्त मे यह विचार हुआ कि बी गिरिराज की यात्रा करना चाहिए। कुछ माह बाद शिखर जी की बन्दना की। वहाँ पर कई वर्ष बिताए, परन्तु जिसे शान्ति कहते है, नहीं पाई। प्रायः बिहार में भ्रमण भी किया। श्री वीर प्रभु के निर्वाण क्षेत्र श्रीराजगृही में ४ माह रहे, स्वाध्याय किया, वन्दनायें कीं । शक्ति के अनुकूल परस्पर तत्त्वचर्चा भी की, परन्तु जिसको शान्ति कहते है प्रणुमान भी उसका स्वाद न प्राया । कुछ दिनों बाद मन में प्राया कि क्षुल्लक हो
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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