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भूषरबास का पाश्र्वपुराण: एक महाकाव्य
उछल कर प्राकाश में चली मानो स्वामी-संगति से वह जैसे कल्पवृक्ष को कल्पलताओं ने घेर लिया हो।। भी पाप रहित हो गई, प्रतः उसकी गति भी उध्वं हो दीक्षा लेने के उपरान्त, एक दिवस पार्श्वनाथ कायोगई है।
त्सर्ग मुद्रा धारण किये योग में तल्लीन थे संवर नाम के स्नानोपरांत देवसंघ भगवान को लेकर प्रश्वसेन ज्योतिषी देव का विमान प्राकाश में रुक गया। यह देव महाराज के घर वापिस पा गया। वहां उसने 'मानन्द' पूर्व कथित कमठ ही था। उसे पूर्व भव का वर स्मरण नाम के नाटक का आयोजन किया। उसमें देवराज का हो आया। उसके नेत्र लाल हो गये, शरीर क्रोध से जल ताण्डव नृत्य प्राश्चर्यजनक था। पुष्पांजलि क्षेपण के उठा । उसने महान उपसर्ग प्रारम्भ किया। चारों ओर साथ ही ताण्डव प्रारम्भ हुआ। मांगलिक शृङ्गार के अंधकार छा गया। बादल गरज-गरज कर वर्षा कर उठे। साथ उसने संगीत और ताल के नियमों के अनुकूल रंग- पानी मूसलाधार होकर गिरने लगा, भयंकर बिजली धरा पर पैरो का संचालन किया। देवगण कुसुम वर्षा तिरछी होकर झलक उठी । प्रति वर्षा के कारण, भूमि कर उठे । किन्नरियो ने मंगल गान किया, गीत के अनुसार महोदधि के समान हो गई, उसमें गिरवर, विशाल वृक्ष ही विविध वाद्ययत्र बजने लगे । नृत्य के समय इन्द्र ने और वन समूह डूब गये । काले यमराज की छवि को सहस्र भुजायें बना ली थीं। वे सब भूषण-भूषित होकर धारण किये हुए बंताल किलकिलाने लगे। उनकी भी शोभायमान हो रही थीं। इन्द्र के चपल चरणों की गति विकगल थी, वे मदमस्त गज की भाँति गरज रहे थे। से पृथ्वी और पर्वत काँप रहे थे। चकफेरी लेते समय उनके गले में मानवों की मुण्डमाला पड़ी थी+। उनके मुकुट की रत्नप्रभा वलयाकृति में इस प्रकार झलकती थी मुख से स्फुलिंगों के साथ फूत्कार निकल रही थी। जैसे चक्राकार अग्नि ही हो। वह क्षण में एक, क्षण में वे हन हन की निर्दय ध्वनि कर रहे थे। इस प्रकार अनेक बहुत तथा क्षण में सूक्ष्म तथा क्षण में स्थूल स्वरूप को दुर्वेषों को धारण करके कमठ के जीव ने उपसर्ग किये धारण करता था। क्षण में निकट और क्षण में दूर किन्तु वे सब व्यर्थ हुए। भगवान अपने ध्यान से टले नहीं, दिखाई देता था । क्षण मे आकाश में घूमता हुआ विदित जैसे मानिक के दीप को पवन को झकोर बुझा नही होता था और क्षण में पृथ्वी पर नत्य करता हुमा दृष्टि पाती। गोचर होता था । इस प्रकार अमरेश ने इन्द्रजाल की स्वाभाविकता भांति अपनी ऋद्धि प्रकट की। उसके हाथ की अगुलियों
मध्यपुग के महाकाव्यों में देव, यक्ष और विद्याधरों के पर अप्सराएँ नृत्य करती थीं। उनके अंग-अंग में भूषण
द्वारा किए गए प्राश्चर्यो का विवेचन आवश्यक था, किन्तु झलक रहे थे । उनके नेत्र खिले हुए थे और मुख मुस्करा
अनेक महाकाव्यों में वणित पाश्चर्य धार्मिक विश्वास की रहे थे। नृत्य के नियमों के अनुसार वे पैर चला रही थीं।
सीमा का भी प्रतिक्रमण कर गये है। पार्श्वपुराण में उन्हीं और उनके कटाक्ष विविध भावो को प्रकट करने में समर्थ
आश्चर्यों को उपस्थित किया गया है जो जैन सिद्धान्त के थे। सुर कामनियों से संयुक्त इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था
अनुकूल हैं। तीर्थकर पार्श्वनाथ के ३४ प्रतिशयों का
भावात्मक विवेचन है। उनमें जन्म के दश, केवल ज्ञान के १. सहस भुजा हरि कीनी तब भूषण भूषित सोहैं सबै।
दश और चौदह देवकृत हैं । जन्म के साथ ही भगवान का धारत चरणचपल अति चल, पहमी काप गिरवर हल। षष्ठोऽधिकार पृ० सं० ५७
शरीर मल-मूत्र रहित और रुधिर दुग्धवत श्वेत होता है। २. छिन में एक छिनक बहु रूप,
+ किलकिलात बेताल, काल कज्जल छवि सज्जहिं । छिन सूच्छम छिन थूल सरूप। भी कराल विकराल, भाल मद गज जिमि गजहि॥ छिन आकाश माहिं संचर,
मुण्डमाल गल धरहिं, लाल लोचन निडरहिं जन । छिन में निरत भूमि पर करै ।। मुख फुलिंग फुकरहिं, करहिं निर्दय धुनि हन हन । षष्ठोऽधिकार पृ० सं०५७-५८
अष्टमोऽधिकार पृ०६८