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________________ १२० अनेकान्त को रत्न सिंहासन पर विराजमान करती थी और कोई छबि को देख कर संसार विमोहित हो जाता था। उस चंवर ढुलाती थी कोई सुन्दर सेज बिछाती थी, कोई हाथी पर शची सहित इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था, जैसे चरण दावती थी। कोई चन्दन से घर सींचती थी और उदय.चल मस्तक पर भानु ।। समूचे महल को सुगन्धि से भर देती थी। कोई कल्पतरुवर सद्यः जात भगवान को सुमेरु पर्वत पर स्नान के लिए के फूलों की माला गूंथ कर माता की भेंट चढ़ाती थी। ले गए। वहाँ पाण्डुक बन की ईशान दिशा में पाण्डुक भगवान का जन्म हवा । नभ की दशों दिशायें निर्मल शिला पर-जो अर्धचन्द्राकार आकृति वाली थी-हेमदिखाई दे उठीं। पाँधी मेंह और धूल का लेश भी नहीं सिंहासन रख दिया और उस पर भगवान को विराजमान रहा । शीतल मन्द और सुगन्धित वायु वहने लगी। सब कर दिया। वहाँ भगवान ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे सज्जन लोग विशेष रूप से हर्षित हो गये, जैसे दिनेश के मानों रत्नगिरि पर मेघ विराजे हों। एक हजार आठ निकलने पर कमलखंड विकसित हो जाते हैं१ देवलोक मे कलशों से भगवान का स्नान हुआ। प्रत्येक कलशे का घंटा स्वतः बज उठे, ज्योतिषियों के यहाँ केहरि नाद होने मुख एक योजन का और गहराई पाठ योजन की थी। लगा, भवनालय में सहज शंख ध्वनित हो उठे और कुबेर ने सुमेरुपर्वत की चोटी से क्षीर सागर तक रत्नध्यंतरों के यहाँ असंख्य भेरियो का निनाद होने लगा। जड़ित पंड़ियों की रचना की थी। इन्द्र ने भगवान के इन्द्रासन काँप उठे। देवराज परिवार सहित जन्मोत्सव अभिषेकार्थ सहस्र भुजाएँ बना ली थी। उसने जिन स्तवन मनाने चला । वह ऐरावत हाथी पर सवार था। उसकी प्रारम्भ किया। भगवान के मस्तक पर महाधार गिरी, मानों रचना विक्रिया ऋद्धि के द्वारा की गई थी। उसके सौ मुख नभगंगा ही अवतरित हुई हो। असंख्य देवगण जयजयकार थे। मुख में आठ-पाठ दाँत थे, प्रत्येक दांत पर एक सौ कह उठे। बहुत कोलाहल हुपा । दशों दिशाएँ बहरी पच्चीस कमलिनियाँ थी। हर एक कमलिनी पर पच्चीस हो गई। पच्चीस कमल थे और प्रत्येक कमल में एक सो प्राठ पत्त जिस धार रो शिखर खड खंड हो सकते हैं, वह धारा थे। पत्ते-पत्ते पर देव नारियाँ नृत्य करती थी। उनकी जिनदेह पर फूल-कनी सी प्रतिभासित होती थी। तीर्थकर ---... -- - 'अप्रमान वीरजधनी' होते है। अत: उनकी शक्ति की कोई भूपन वसन समप्पे, कोई भोजन सिद्ध कर। समता नहीं हो सकती। प्रभु की नील वर्ण देह पर कलश कोई देय तंबोल ज खाने कोई सुन्दर गान करें। के जल की छवि, नीलाचल सिर पर हेम के बादल की -पंचमोऽधिकार, पृ० सं० ४६ वर्षा की भांति प्रतीत होती है१ । स्नवन जल की छटा १. जनम्यो जब तीर्थकर कुमार, तिहुँ लोक बढयो आनन्द अपार । एकेक कमलनी प्रति महान, दीव नभ निर्मल दिशि अशेश, पच्चीस मनोहर कमल ठान। कहिं आँधी मेंहन धूलि लेश । प्रति कमल एक सो आठ पत्र, अति शीतल मन्द सुगन्धि वाय, शोभा वरनी नही जाय तत्र । सो वहन लगी सुख शांति दाय। पत्रन पर नाचें देव नार, सब सुजन लोक हरष विशेष, जग मोहत जिनकी छवि निहार । ज्यों कमलखंड प्रगटत दिनेश । -षष्ठोऽधिकार पृ० सं० ५२ -पप्टोऽधिकार, पृ० सं०५१ पाश्र्वपुराण भूधरदास जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता२. पार्श्वपुराण-भूधरदास जिनवाणी कार्यालय, कलकाता १ नील वरन प्रभु देह पर, कलश नीर छवि एम । प्रति दन्त सरोवर इक दीस, नीलाचल सिर हेम के, बादल बरपै जेम ।। सरसर हंस कमलनी सौ पचीस । पष्ठोऽधिकार पृ० स० ५४
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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