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शोष-कण
के कर्ता तो विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान है। द्वितीय के सेनापति और मत्री चामडराय के लिए और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती दक्षिण भारत के विद्वान गोम्मटसार प्रादि ग्रथों की रचना की थी। चामुण्डराय ने थे. न कि कि मालवा के, और समय भी विक्रम की ११वीं अपना कन्नड भापा का पूराण शक सं० ६०० वि० सं० शताब्दीका पूर्वाद्ध है. उक्त राजा भोज का समय उनसे १०३५ में बना कर समाप्त किया था, प्रतः माधवचन्द्र बाद का है। ऐसी स्थिति में उनके साथ इनका सामंजस्य और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का समय भी वि० सं० कैसे बिठलाया जा सकता है।
१०३५ के आस-पास का होना चाहिए । अर्थात् वे विक्रम दुसरे भोजराज देव शिलाहार वंश के शासक थे। की ११वीं शताब्दी के मध्य काल के विद्वान थे। चामुण्डउनका राज्य क्षुल्लकपुर [कोल्हापुर और उसके मास- राय गंगे नरेश राचमल्ल के प्रधान प्रामात्य थे, जिनका पाम के प्रदेश पर था। इस वंश में अनेक शासक हुए हैं राज्यकाल वि० सं० १०३१ से १०४१ तक बताया
और उनके समय में जैनधर्म की अच्छी प्रगति हुई हैं। गया है। वहां की भट्टारकीय गद्दी पर अनेक विद्वान् भट्रारक हए कन्नड भापा के प्रसिद्ध कवि रन्न ने अपना 'पुराण है, जो विद्वान और प्रभावशाली थे। इन्हीं भोजराज के तिलक' अजितपुराण नामक ग्रंथ शक सं० ११५ वि० सं० मंत्री बाहुबली थे, जिनका उल्लेख 'क्षपणासार गद्य की १०५० में समाप्त किया था, उमने अपने पर चामुण्डप्रशस्ति में
राय की विशेष कृपा होने का उल्लेख किया है। इन सब "भोजराजाज्यसमुद्धरणसमर्थबाहुबलयुक्तदानादिगुणो
उल्लेखों की रोशनी में नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती स्कृष्टमहामात्यपदवीलक्ष्मीवल्लभ वाहुबलि धानेन ।"
का समय मागे नहीं बढ़ाया जा सकता । और न नेमिचन्द्र
सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य माधवचन्द्र विद्यदेव का उल्लिखित उक्त वाक्यों में बाहुबली मंत्री को उन्हें भोज
क्या म बाहुबला मत्रा का उन्हें भाज- सम्बन्ध क्षपणासार गद्य के कर्ता के साथ ही जोड़ा जा राज के राज्य का समुद्धार करने में समर्थ बतलाया है, और सकता है। दानादि गुणों में उत्कृष्ट महामात्य पदवी तथा लक्ष्मी- दमरे माधवचन्द्र विद्यदेव भट्टारक सकलचन्द्र के वल्लभ विशेषणों द्वारा उनका खुला यशोगान किया गया है। शिष्य थे। उन्होंने उक्त शिलाहारवंशी राजा वीर भोजराज इससे उनकी महना का स्पष्ट भान हो जाता है। बाहु- के महामात्य बाहबली प्रधान की संज्ञप्ति के लिए क्षपणाबली मत्री क्षल्लकपुर [कोल्हापुर] या उसके पास-पास के सार गद्य की रचना शक सं० ११२५ के दुंदुभि मंवत्सर के निवामी थे। राजनीति में दक्ष तथा राज्य के संरक्षण में की थी। पण्डित जी ने इस शक सं० (११२५) को में सावधान थे और धर्म-कर्म निष्ठ थे । इन्ही की संनप्ति विक्रम संवत माना है। उसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं के लिये क्षपणासार गद्य की रचना की गई थी। इन वीर दिया, केवल शक-शब्द का विक्रम अर्थ बतला कर इसे भोजदेव के साथ भी नेमिचन्द्र सिद्ध चक्रवर्ती और उनके विक्रम संवत मान लिया गया है। यदि इन सब शक शिष्य माधवचन्द्र विद्य देव का सामञ्जस्य नहीं बैठाया संवतों को विक्रम संवत मान लिया जाय तो जो इन जा सकता। क्योंकि इनका ममय पश्चाद्वर्ती है। इमी राजानों और विद्वानों आदि में शक संवत प्रचलित है उसे तरह माधवचन्द्र भी भिन्न-भिन्न समय के विद्वान है। विक्रम मान लेने पर इतिहास में बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न हो उनका कार्य क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न ही है।
जायगी। उसे कैसे दूर किया जा सकेगा ? उनमें प्रयम माधवचन्द्र देव वे है, जो प्रभयनन्दि वीरनन्दि १. अमुनामाधवचन्द्र दिव्यगणिना विद्य चक्रशिना, इन्दनंदी के शिष्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे । क्षपणासारमकारि बाहुबलि सन्मंत्रीश सज्ञप्तये । जिन्होंने त्रिलोकसार की टीका बनाई थी, और उसमें शक काले शर सूर्यचन्द्र गणिते (११२५) जाते पुरे कतिपय गाथा गुरु की अनुमति से रच कर शामिल कर दी
क्षुल्लके, थी। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने गंगवंश के राजा प्रसिद्ध राचमल्ल शुभ दे दुंदुभि बत्सरे विजयतामाचन्द्रतारं भुवि ॥१६