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'जयपुर' की संस्कृत साहित्य को देन-"श्री पुण्डरीक
विट्ठल ब्राह्मण" डा० श्री प्रभाकर शास्त्री एम. ए. पी-एच. डी.
फर्जन्दे दौलत-मिर्जाराजा मानसिंह (प्रथम) का नाम इतिहास में प्रसिद्ध नहीं है और आपकी वास्तविक ख्याति न केवल 'आमेर' या 'जयपुर' के इतिहास में ही प्रसिद्ध श्रीमान सिंह सरीखे 'सूर्य' की ज्योति में 'प्रमावस्या के है, अपितु भारतवर्ष के अथवा संसार के इतिहास में बड़े चन्द्र के समान साथ रहने पर उसी में अन्तः प्रविष्ट हो गौरव के साथ लिया जाता है। आप यवन सम्राट् श्री गई है। यों श्री मानसिंह का दरबार न केवल योद्धाओं जलालुद्दीन खान 'अकबर' के प्रधान सेनापति एवं दक्षिण का ही प्राश्रय स्थान था, वहां सभी विषयों के कलाकार हस्त थे । वास्तव में यदि निष्पक्ष रूप से देखा जाय तो रहा करते थे और इसका पूर्ण श्रेय कला प्रेमी विद्वान् श्री अकबर की विस्तृत ख्याति के मूल पाप ही थे। आपकी माधवसिंह (प्रथम) को है। इनकी रसिकता एवं विद्या वीरता की धाक भारत की सभी दिशाओं में व्याप्त थी। प्रेम ने भारत के प्रसिद्ध एवं प्रकाण्ड विद्वानों को सम्मान
मिर्जाराजा मानसिंह के एक भाई और भी थे, जिनका प्रदान किया था।-इन सम्मानित एवं सुप्रतिष्ठित नाम 'माधवसिंह' था। ये वीरयोद्धा नहीं थे। मानसिंह विद्वानों में से श्री पुण्डरीक विट्ठल ब्राह्मण का नाम चिरके इतस्ततः युद्धों में व्यस्त रहने के कारण ये प्रायः अपनी स्मरणीय है । यहां इनके विषय में कुछ सूचनाएं प्रस्तुत राजधानी 'मामेर' (वर्तमान राजस्थान की राजधानी- करते हैं। 'जयपुर' से ६ मील उत्तर मे स्थित एक लधु नगर) में ही संगीताचार्य श्री पुण्डरीक विट्ठल ब्राह्मण कर्णाटक रहते थे तथा वहाँ की रक्षा के अतिरिक्त अन्यान्य शास- ब्राह्मण थे। आप 'खान देश' प्रान्त में 'सतनुवं' नामक कीय कार्य सम्पन्न किया करते थे। आपका नाम ग्राम के निवासी थे। इनका गोत्र 'जामदग्न्य' था। सर्वबभूव प्रेयगी तस्य धनदेवीति विथुना।
सानन्तमुग्यनिदानी धोपि ज्ञायते श्रुनान् । दाक्षिण्योज्वलशीलेन हृदयानन्ददायिनी ॥३६॥
श्रुत च पुस्तकाधीनं तत्कार्यः पुस्तकोद्यमः ॥४२॥ अजायन्त ततस्तिस्रः गीलालङ्करणा. मुताः ।
पुस्तक लेषयामास स्वसु श्रेयोर्थमाबड. । कर्पग्देवी भौपलदेव्यो वील्हण देव्यपि ॥३७॥
सन्ताप नाम्न्या. स्नहेन पल्हण भ्रातृ संयुतः ॥४३॥ अभूदेव कुमारस्य प्रेयसी छाडकाभिधा।
प्रोद्यनियावदः सौवित्ति नपनः प्राची पृरन्ध्री मुखे पतिव्रता नमाचार चातुर्याजित सद् यशाः ॥३८॥
कान्ति व्यक्तदिश मुवणंतिलक थी ग-विभ्रमे । कुमारपाल सुतोभूत पितुराज्ञोद्यत स्तयो ।
थीनाभेय जिनस्य चार चरितं तावत्कथाश्चर्य कृत् जिनशाम (ना)नुगगी विगगी दोष.....॥३६।।
नंद्यादत्रे विचार्यमाणमनघप्रनः मदा कोविदः ॥४४॥ विवेकरवि रन्येधु स्फुरतिस्मेति निर्मलः । सन्तोसाया मानमाद्री विद्रावयन तमस्थति ॥४०॥
ताड़पत्रीय प्रति का पत्र २६६वां लम्बा इंच धातस्तत्रस्चनुरगमाग तरलाः सम्पन्नयोत्पूजिताः ।
३०+२। चोड़ा] लुभ्यल्लुब्धक विभ्यदर्भक मृगीदृग् चचल यौवनम् ।।
प्रशस्ति महत्वपूर्ण है पर प्रारम्भ मे तथा प्राचार्य बन्धु प्रेम तडिल्लताद्युतिचलं चैतत्तथा जीवितं
संवत् परम्परादि होनी चाहिये । सवत् वाला वह पत्र मत्वेव जिनमर्म कम्मणि मतिः कार्य'शाश्वते ॥४॥ कहीं प्राप्त हो जाय, तब पूरा महत्व प्रगट हो सकेगा।