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________________ के शब्द है और इसका अर्थ 'बढ़ई का शस्त्र - वसूला' होता है। शब्द के अन्त में कोपकार ने जो 'L' संज्ञा का प्रयोग किया है, उसका धयं होता है यह शब्द केवल शब्द कोषों में उपलब्ध होता है, किसी भी मुद्रित ग्रन्थों में नहीं मिलता। कोषकार ने 'वासी' का अर्थ तो सही रूप में किया है, परन्तु 'L' का प्रयोग सही नहीं है। जैसे हम देख चुके हैं, प्रस्तुत शब्द का प्रयोग महाभारत जैसे प्रसिद्ध और प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है। इस प्रकार 'L' संज्ञा के प्रयोग से स्पष्ट होता है कि कोषकार 'वासी' के साहित्यिक प्रयोग से अपरिचित रहे हैं। अर्वाचीन भाषा टीकाकार--- प्रचीन भाषा टीकाकारों ने हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती मादि भाषाओं में श्रागम- साहित्य पर जो व्याख्याएँ लिखी हैं, उनमें भी 'वासीचन्दनकल्प' की surenr sfusiशतया 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र' के समान ही मिलती है। कुछ एक महत्वपूर्ण भाषा टीकाकारों का यहाँ हम उल्लेख करते हैं: श्वेताम्बर तेरापंथ के चतुर्थ श्राचार्य श्री मज्जयाचार्य २ जी जैन भागम साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे, 'उत्तराध्ययन सूत्र के राजस्थानी पद्यानुवाद में प्रस्तुत शब्द-समूह की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :"कोडक ब करने दे कोइ चन्दने सीपे। ए बीहू ऊपर भाग सरोवा, राग जी ॥ वातिका-यहाँ पाठ वासी चन्दनरूप्पो यो कल्पशब्द ते 1. L-Lexicographers (i.e. a word or meaning which although given in native lexicons, has not yet been met with in any published text. सदृश प्रथंपणीथकी तुल्य । बांसीले छेद १ : चन्दने लेपे २ : तुल्य भाव । " ३ जयाचार्य ने यहाँ 'वासी' का प्रथं वसूका ही किया है और 'वासी चन्दनरूप्पो का अर्थ "कोई वसूले से छेदे और कोई चन्दन से लेप करे, तब उन दोनों पर समान भाव रखना - राग-द्वेष रहित होकर" किया है । इसी प्रकार 'उबबाई सूत्र' के गुजराती मनुवादकार ममृतचन्द्रसूरि ४ तथा 'उत्तराध्ययन सूत्र' के हिन्दी व्याख्याकार उपाध्याय माध्मारामजी ने वासी का धर्म वसूला तथा वासी जन्दनकल्प का पर्व उपर्युक्त ही किया है। बवाई सूत्र के एक माधुनिक हिन्दी अनुवाद में विभिन्न व्याख्याओं के आधार पर विभिन्न पर्थ इस प्रकार दिये गये हैं- "चन्दन अपने काटने वाले वसूले की धार को भी सुगंधित बना देता है। क्योंकि चन्दन का स्वभाव ही सुगंध देना है। इसी प्रकार अपकारी के प्रति भी उपकार बुद्धि रखना । "अथवा अपने प्रति 'वासो' के समान बरताव करने वाले प्रपकारी और चन्दन के समान शीतलता प्रदाता उपकारी के प्रति समान भाव रखना - रागद्वेष नहीं करना ।" "प्रशस्त्र से दुःख देने वाले और चन्दन से पूजने वाले के प्रति समभाव रखना 'वासीचन्दने- समाणकप्पा' कहा जाता है।" यहाँ सर्वत्र 'वामी' का पर्व 'बला' ही किया गया है पहले दो विकल्पों में प्रालंकारिक व्याख्या का प्राधार लिया गया है, जब कि अन्तिम विकल्प शाब्दिक व्याख्या पर आधारित है । ३. उत्तराध्ययन की जोड़ १६१६२ । ४. उवबाई मूत्र, प्र० राय घनपतसिंह बहादुर, कलकत्ता, १३६, पृ० १०० ॥ ५. उत्तराध्ययन सूत्र, प्र० जैन शास्त्रोद्धार कार्यालय, लाहोर, १६३६, खण्ड २, ११६६२ । -Abbveviations P XXXV २. जयाचा (वि० सं० १८६०-१९३०) ने राजस्थानी भाषा में जैन धर्म और दर्शन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ की है। इनमें भगवती सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र और ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र का पद्यानुवाद उल्लेखनीय है । ६. उबधाई सूत्र, अनु० प० मुनि उमेशचन्द्रजी 'मरण' प्र० प्र० भा० साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, संसाना (मध्यप्रदेश) १६६३, पृ० १०१ ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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