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________________ दो ताड़-पत्रीय प्रतियों की ऐतिहासिक प्रशस्तियां श्री भंवरलाल नाहटा ऐतिहासिक साधनों में शिलालेखों की तरह प्रश- जैन ग्रंथों की वर्तमान में जो भी प्रतियां उपलब्ध स्तियों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि दोनों की है उनमें सबसे प्राचीन प्रति जैसलमेर के बड़े ज्ञान भंडार उपयोगिता व महत्व द्वारा शिलालेख पत्थरों पर में विशेषावश्यक भाष्य' की मानी जाती है जिसका खोदे जाते हैं और प्रशस्तियां ताड पत्र या कागज की समय १०वीं शताब्दी का है। संवतोल्लेख वाली प्रतियां प्रतियों पर लिखी जाती हैं पर दोनों ही समकालीन लिखे । प्रायः १२वीं शताब्दी से ही अधिक मिलने लगती है। जाने से समान रूप से प्रामाणिक ऐतिहासिक साधन हैं। दि० ताड़-पत्रीय प्रतियों में षट् खण्डागम की दक्षिण मन्दिरों और प्रतिमा लेखों के संग्रह एवं महत्व की ओर भारत की ताड़-पत्रीय प्रतियां ही सबसे प्राचीन हैं। कागज जितना ध्यान दिया गया है उतना जैन ग्रन्थों की प्रश की प्रतियां १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ की जैसलमेर स्तियों और संग्रह की पोर नहीं दिया गया। प्रशस्तियां भण्डार में ही प्राप्त हुई हैं अन्यत्र १४वीं से ही मिलने प्रधानतया दो प्रकार हैं-एक ग्रन्थ रचना संबंधी और लगती है। दूसरी ग्रन्थ लिखने सम्बन्धी । ग्रंथ रचना प्रशस्ति तो ताड-पत्रीय प्रतियों के श्वे. भण्डार जैसलमेर, पाटण, एक ग्रंथ की एक ही होती है पर लेखन प्रशस्तियां एक खम्भात, बड़ौदा, सूरत, आदि स्थानों में है पर प्रधानतया ग्रन्थ की अनेकों मिलती हैं क्योंकि समय-समय पर एक जैसलमेर, पाटण, खम्भात के भण्डारों की ही समझिये । ही ग्रथ की अनेकों प्रतिलिपियां होती रही हैं और लिखने इन तीनों भण्डारों की ताड़-पत्रीय प्रतियों का विवरणात्मक की प्रशस्तियां भिन्न-भिन्न होंगी ही। सूची-पत्र बड़ौदा से छपे है। खम्भात भण्डार की प्रतियों जैन ग्रंथों की रचना-प्रशस्तियां प्राचीन भागमादि का दूसरा भाग अभी प्रेम में है। जैसलमेर भण्डार की ग्रंथों में तो नहीं मिलती पर चरित और प्रकरणादि । नई व्यवस्था मुनि पुण्य विजयजी ने करके व्यवस्थित सूची ग्रंथों में परवर्ती ग्रंथ कारों ने लिखनी प्रारम्भ कर दी। प्रथ तयार किया है वह कई वर्षों से छपा पड़ा है पर स्वी शताब्दी के पहले की प्रशस्तियां थोड़ी सी है और अभी प्रकाशित नही हुआ। वे बहुत संक्षिप्त है। पर हवीं शताब्दी से. लम्बी-लम्बी मुनि जिन विजय जी ने ताड़-पत्रीय लेखन प्रशस्तियों और महत्वपूर्ण प्रशस्तियां ग्रंथ के अन्त में लिखी हई का एक संग्रह प्रकाशित किया है । ताड़-पत्रीय और कागज पाई जाती हैं। यह तो ग्रंथकार की रुचि का प्रश्न है कि की ग्रंथ प्रशस्तियों के दूसरे भाग के कुछ पृष्ठ ही छपे है। कोई तो केवल अपना नाम ही दे कर संतोप कर लेता देश विरति धर्माराधक सभा, अहमदाबाद से कई वर्ष हैं (प्राचीन लेखक तो वह भी नहीं देते थे) और कोई पूर्व एक "प्रशस्ति मंग्रह प्रकाशित हुआ था। अपनी गच्छ-वंश-परम्परा, रचनाकाल, रचना स्थान, एक दि० ग्रंथ प्रशस्ति सग्रह पहले आरा से निकला प्रेरक संशोधक, आदि की जानकारी भी विस्तार से दे फिर वीर सेवा मन्दिर से भी दो भाग निकल चुके हैं। देते हैं। वि० अपभ्रंश ग्रंथों की जितनी लम्बी प्रशस्तियां वैसे श्वेताम्बर दिगम्बर अन्य कई सूची पत्रों में भी हैं उतनी दि० प्राकृत, संस्कृत ग्रंथों की कम ही मिलती प्रशस्तियां छपी हैं और कई अभिनन्दन और स्मृति ग्रंथों हैं । पर श्वे० प्राकृत, संस्कृत ग्रंथों की प्रशस्तियां बहुत तथा पत्र-पत्रिकाओं में भी निकली है। पर अभी तक विस्तृत और महत्व की मिलती हैं। हजारों ग्रंथ-प्रशस्तियां अप्रकाशित हैं जिनके प्रकाशन से
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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