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सुरासुर किनर लेयर भूरि, जिवि पयचर्चाहं णचहिं णारि । सुरप्रप्छर गावहि सोक्खह घाम, जिfणवह सोहइ मोत्तिय दाम ॥ १३ भी भवियण जिण-पय-कमल, माल महग्धिय लेहु । नियलच्छि फल करि करहु, दुक्ख जलंजल बेहु ॥ १४
तुल बेह जसंजलि जिण,
कुसुमावलि पुज्जहु भवियण सुक्ख कर । जिण भवण पवित्त निम्मल,
fai लिय चविह संघुवर ॥१५
अनेकान्त
एह अवसर गुणह नविलम्भई बहु पुष्य विण । जिनवर पथ कमल लिज्जइ चंचल जाणि घण ॥१६ घणु जोब्वणु कंचणु रयणु परियणु भवणु वि सब्बु । जल बुम्बु करि कण्ण जिय चंचल म करहु गब्बु ॥ १७ मा जाहू गब्बु बेहु बब्बु लेहु माल निम्मली । तुवार हार चंद गोर कित्ति होइ निम्मली ॥ सुरेन्द्र विन्द भूनरेन्द्र खेचरव पुज्जिया । जिवि पाय पोममाल सव्व दोस वज्जिया ॥ १८ नित नित भवियण जिण भवणि करहु महोच्छव साद । मन वांछित संपय लहिवि पुणु पावहु भव-पारु ॥१९ भवसेय पारं महादुववहारं त्रिलोकं कसारं जणाणंवकारं । परं देव वेवं सुरवेण सेवं, निणिवं प्रणिदं जजों धम्मकंबं ॥ २० बलि बलि अवसर णवि मिलइ णवि दीसह थिर काइ । जिण धम्महि मणु दिदु करहु कालु गलंतहु जाइ ॥२१ गलति झत्ति जाइ कालु मोह जाल वट्टए, सुहोहि जाणु भव्य भाणु श्रग्गि जेम कढए । जिणिव चंद पाय पुज्ज धम्मकज्ज किज्जए, सुपत्तदाणु पुण्णठाणु वयणिहाणु लिज्जए ॥२२ लिज्जइ फल नियकुल तणउ लच्छिय चपल, श्री जिन पुज्ज करे वि लहू मणिधरि णिम्मल, मणि भाव घरेष्पिणु पुज्ज करेष्पिणु माल महोच्छव केरउ ।
जिण भवणि करिज्जइ घणु वेविज्जद्द...
"रहि सुरगंधी रहि भेरी भंभा सद्द सुहोकंसालहि तालहि मंगल घवलहि माल जिणिदह लेहु लहु । माल निणिदह तणिय लेहु तिहूवण तारइ । रोग - सोग - बालि दुक्खु णवि णीहुउ प्रावइ । जिणवर पाय पसाह जीव वांछित फल पावइ ।
श्रीमूलसंघ मंगल करण मल्लिभूसण गुरु गुण विमल । सनं प्रभिनंद कर नेमिदत्त पर्ण सकल ॥
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कवि की दूसरी रचना 'आदित्यव्रतरास' ( रविब्रत कथारास) है। जिसकी पद्य संख्या १०९ है । इस रास की भाषा में अनेक गुजराती भाषा के शब्दों का अंकन हुआ है, नमीएचंगनु, बखाणसु श्रादि । जिनसे स्पष्ट मालूम होता है कि रचना गुजरात प्रदेश में हुई है । इन रचनाओं में रचना काल दिया हुआ नहीं है । फिर भी ये दोनों रचनाएँ अपनी रचना पर से विक्रम की १६वीं शताब्दी की जान पड़ती हैं। और देव पल्ली में लिखी गई हैं। रचना का श्रादि श्रन्त इस प्रकार है :आदि भाग
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पास जिनेसर पथकमल प्रणमिवि परमानंदन, भव- सायर-सरण- तारण भवोयण सुहतरु कंबनु ॥ १ श्री सारदा सहि गुरु नमीए निर्मल सौख्य निधाननु । प्रादित्यव्रत बखाणसुं ए जिन शासन परधाननु ॥ २
कथा वही है, जो अन्य रविव्रत कथा में पाई जाती है । अन्त भाग
श्री जिनवर चरण कमल नभीएब्रह्म नेमिदत्त भणिचंगनु । ए व्रत जे भवियण करिए ते लहि सौख्य प्रभंगनु ॥ मन वांछित सम्पदा लहिये ते नर नारी सुजाणनु । इम जाणि पास जिण तणु ए रविव्रत कर भुवि जाणतू ॥
आपकी अन्य रचनाएं भी अभी ज्ञान भण्डारों में श्रन्वषरणीय है ।