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अनेकान्त
किया है। श्वेताम्बर तेरा पन्थ के उदय को लगभग दो सौ वर्ष का समय हुआ है, इतने समय में इस पन्थ ने अच्छी प्रगति और प्रतिष्ठा प्राप्त की है। उसकी इस प्रगति का मूलकारण प्राचार्य तुलसी की शालीनता और उदार दृष्टि है। प्राचार्य श्री जब गत वर्ष दिल्ली पधारे थे तब उन्होंने मुझे दश वैकालिक की प्रति दिखलाई थी, ग्रन्थ का अध्ययन करके ही उसका पूरा मूल्य भाका जा सकता है।
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४. मालवा की माटी - लेखक सम्पतलाल पुरोहित युगछाया प्रकाशन २५५१ धर्मपुरा दिल्ली-६ पृष्ठ संख्या १५६, मूल्य सजिल्द प्रति का ३ रुपया ।
प्रस्तुत पुस्तक ऐतिहासिक व राजनीतिक उपन्यास है। यह एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। घटना बड़ी सजीव और अन्याय की पराकाष्ठा को चुनौती देने वाली थी। सम्राट् विषमादित्य के पिता गन्धर्वसेन की पुरातन जीवन घटना को नये साज-सज्जा के साथ चित्रित किया गया है । गन्धर्व सेन गर्दभी विद्या के कारण मदोन्मत हो अन्याय पर उतारू हो रहा था, उसकी सैन्य शक्ति बढी हुई थी। उस समय के लोगों ने उसे बहुत समझाया, परन्तु उसने किसी की एक न सुनी। कामाथ विवेक रहित होता है उसने जैनाचार्य कालक की बहिन भायिका सरस्वती का प्रपहरण
करके कालक को प्रतिशोध के लिए बाध्य किया था । उक्त घटना चक्र पर ही आगे का कथानक वृद्धिगत हुआ है । घटनाओं ने कही कही कुछ ऐसा मोड़ लिया, जिसमें धार्मिक दृष्टिकोण दबता गया और राष्ट्रीय दृष्टिकोण
उभरता हुआ नजर आता है। लेखक ने राष्ट्रीय दृष्टिकोण को पल्लवित करने के लिए ही उक्त कथानक का सहारा लिया है कुछ पात्रों का भी नया चुनाव करना पडा है। प्राचार्य कालक के सम्बन्ध में भी कुछ स्वच्छन्दता वर्ती गई है। फिर भी कथानक में कोई अन्तर नहीं था पाया है। फिर उपन्यास में तो घटनाचक्र का रूप ही दूसरा होता है । उसमें कल्पना की प्रधानता होती है, तो अन्य में घटनाचक्र की देश की सुरक्षा के लिए पुरोहित जी का यह प्रयास प्रशंसनीय है ।
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श्रमणोपासक - ( जनदर्शन, साहित्य धर्म अक ) सम्पादक जुगराज सेठिया और देव कुमार जैन, वार्षिक मूल्य छह रुपया । इस प्रक का मूल्य दो रुपया ।
प्रस्तुत प्रक प्रखिल भारती साधु मार्गी जैन संघ बीकानेर का मुख पत्र है । यह तीसरे वर्ष का प्रवेशाक है। इस अंक में ३६ लेख कविता व कहानी आदि है। साधुमार्गी समाज का यह प्रयास स्तुत्य है । लेखो का चयन अच्छा हुमा है। ऐसे विशेषाको में उच्च कोटि के लेखकों के लेख होने चाहिए थे जो तुलनात्मक दृष्टि से लिखे जाकर जैन संस्कृति को महत्ता प्रदान करत । ऐसा करने में जहा पत्र के प्रकाशन में विलम्ब होता वहा उससे पत्रिका का स्टेन्डर्ड ही न बढता किन्तु जैन दर्शन और साहित्य पर महत्वपूर्ण नेम सामग्री का धन भी विज्ञ पाठको को अवश्य मुखरित किये बिना न रहता, फिर भी एक अच्छा है, छपाई सफाई माधारण है ।
- परमानन्द शास्त्री
मानव अत्यधिक स्वार्थी हो गया है, वह जहाँ अपने स्वार्थ की पूर्ति देखता है उसी घोर प्रवृत्ति
करता है मानों स्वार्थ ही उसका सब कुछ है, वह स्वायं के बिना दूसरों से बात भी नहीं करता। ग्रतः
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उसका जीवन ऊंचा उठने के बजाय नीचा ही होता जाता है ।