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अनेकान्त
४८ काव्य कहा गया है। इन ४८ पद्यों में मे श्वेताम्बर के ममकालीन हैं । प्रत. सर्व प्रथम भोज की समकालीनता सम्प्रदाय ने प्रशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्र और चमर इन पर विचार किया जाता है। इतिहास में बताया गया है चार प्रातिहार्यो के निरूपक पद्यों को ग्रहण किया तथा कि सीमक हर्ष के बाद उसका यशस्वी पूत्र मूज उपनाम दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामण्डल पार दिव्यध्वान इन चार वाक्पति वि० सं० १०३१ (ई. ९७४) में मालवा की प्रातिहार्यों के विवेचक पद्यों को निकालकर इस स्तोत्र में गद्दी पर ग्रामीन हया। वाक्पति मुञ्ज ने लाट, कर्ना
पद्य ही माने। इधर दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ टक, चोल और केरल के साथ युद्ध किया था। यह योद्धा हस्तलिखित प्रतियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले तो था ही, साथ ही कला और साहित्य का सरक्षक भी। हए उक्त चार प्रातिहार्यों के बोधक चार नये पद्य और उसने धारा नगरी में अनेक ताला जोड़कर पद्यों की संख्या ५२ गढ़ ली गयी१ । वस्तुतः इस सभा में पद्मगुप्त, धनञ्जय, धनिक पोर हलायुध प्रभृति स्तोत्र-काव्य मे ४८ ही मूल पद्य है।
ख्यातिनाम साहित्यिक रहते थे। मुज के अनन्तर सिन्धु(४) स्तोत्र काव्यों का महत्त्व दिखलाने के लिए राज या नवसाहसांक सिंहासनासोन हुआ। सिन्धुराज के उनके साथ चमत्कारपूर्ण पाख्यानों की योजना की गई अल्पकालीन शासन के पश्चात् उसका पुत्र भोज परमोग है। मयूर, पुष्पदन्त, बाण प्रभृति कदियों के स्तोत्रों के की गद्दी पर बैठा। इस राजकुल का यह सर्वशक्तिमान पीछे कोई-न-कोई चमत्कारपूर्ण पाख्यान वर्तमान है। और यशस्वी नपति था । इसके राज्यासीन होने का समय भगवदभक्ति चाहे वह वीतरागी की हो या स रागी की, ई० सन् १००८ है। भोज ने दक्षिणी गजामों के साथ तो प्रभीष्ट पूत्ति करती है। पूजा-पद्धत्ति के प्रारम्भ होने के युद्ध किया ही, पर तुरुष्क एवं गुजरात के कीतिराज के पूर्व स्तोत्रों की परम्परा ही भक्ति के क्षेत्र में विद्यमान साथ भी युद्ध किया । मेरुतग के अनुसार२ भोज ने पचपन थी। यही कारण है कि भक्तामर, एकीभाव और कल्याण- वर्ष, सात माम, तीन दिन गज्य किया था। भोज विद्यामन्दिर प्रभति जैन स्तोत्रों के साथ भी चमत्कारपूर्ण रसिक था। उसके द्वारा रचित लगभग एक दर्जन ग्रथ पाख्यान जईहए हैं। इन पाख्यानों में ऐतिहासिक तथ्य हैं। इन्ही भोज के ममय मे प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अपना हो या न हो, पर इतना सत्य है कि एकाग्रतापूर्वक स्तोत्र- प्रमेयकमल-मार्तण्ड लिखा है - पाठ करने से प्रात्म-शुद्धि उत्पन्न होती है और यही "श्रीभोजराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना पगपरपन्मपिठयांशिक शुद्धि प्रभीष्ट की सिद्धि में सहायक होती है। पदप्रणामाजिनामलपुण्यनिगकृतनिखिलमलकलन श्रीसमय-विचार :
मत्यभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयम्वरूपादयोतपरीक्षा
मुखपदामद विवृतमिति"३ । मानतग के समय-निर्णय पर उक्त विरोधी पाख्यानो।
श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने प्रभाचन्द्र का समय से इतना प्रकाश अवश्य पडता है कि वे हर्ष अथवा भोज ,
1 ई० सन् १०२० के लगभग माना है। अत: भोज का १. अभी एक भक्तामर दि. जैन समाज, भागलपुर राज्यकाल ११वी शताब्दी है। (वि० सं० २४६०) में प्रकाशित दृग्रा है। जिसमें प्राचार्य कवि मानतग के भक्तामर स्तोत्र की शैली "वृष्टिदिव सुमनसा परितः प्रपात (३५): दुष्णामनुग्य- मयर और बारण को स्तोत्र-शैली के ममान है। अनाव सहसामपि कोटिसंख्यां (३७); देव त्वदीयमकलामलकेव- भोज के राज्य मे मानत ग ने अपने स्तोत्र की रचना नहीं लाव (३६) पद्य अधिक मुद्रित है।
की है । अत भोज के राज्य-काल में बाण और मयर के श्वेताम्बर मान्यता का एक भक्तामर हमे मिला है। साथ मानतंग का साहचर्य कराना सम्भव नहीं है। जिसमें 'गम्भीरताररव (३२), मन्दार-मुन्दग्नमेरूसुपारि- -
२. पञ्चाशत्पञ्चवर्षाणि मामाः सप्त दिनत्रयम् । जात (३३) शुम्भत्प्रभावलय (३४), स्वर्गापवर्ग (३५)
भोक्तव्यं भोजगजेन मगौड दक्षिणापथम् ।। पद्य मुद्रित नहीं हैं। ३१वें पद्य के पश्चात् ३६वें पद्य का प्रबन्धचिन्तामरिण पृ० २२, सिंधी ग्रंथमाला १६ । पाठ ३२वे पद्य के रूप में दिया गया है ।
३. प्रमयकमलमार्तण्ड, ग्रंथान्त-प्रशस्ति ।