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प्राचार्य मानतुङ्ग
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क्षीण-सा हो रहा है, यह प्रदीप मानो निद्रा के अधीन हां उनके किकर देवतानो का चमत्कार देखा जा सकता होकर झूम रहा है और मान की सीमा तो प्रणाम करने है। इस प्रकार कह कर अपने शरीर को चवालीस हथतक होती है, ग्रहो! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ कड़ियों पर बेडियों से कसवा कर उस नगर के श्री रही हो।"
युगादिदेव के मन्दिर के पिछले भाग में बैठ गये । भक्ताकाव्य के तीन पाद बार-बार सुनकर बाण ने चौथा मर-स्तोत्र की रचना करने से उनकी बेड़िया टूट गयी चरण बना कर कहा-'हे चण्डि ! स्तनों के निकटवर्ती और मन्दिर को अपने सम्मुख परिवर्तित कर शासन का होने से तुम्हारा हृदय कठिन हो गया है'
प्रभाव दिखलाया। गतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शोर्यत इव
मानतुग के सम्बन्धमें एक इतिवृत्त श्वेताम्बराचार्य प्रदीपोऽयं निद्रावशमपगतो पूणित इव । गुणाकर का भी उपलब्ध है। उन्होंने भक्तामर स्तोत्रवृत्ति प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि कुषमहो मे, जिसकी रचना वि० सं० १४२६ में हुई है, प्रभावककुचप्रत्यासत्या हवयमपि ते चण्डि ! कठिनम॥ चरित के समान ही मयूर और बाण को श्वसुर एव भाई के मुग्व से चतुर्थ पाद को सुनकर वह लज्जित जामाता बताया है तथा इनके द्वारा रचित मूर्यशतक और हो गयी और अभिशाप दिया कि तुम कुष्ठी हो जानो। चण्डीशतक का निर्देश किया है । राजा का नाम बद्धभोज बाण पतिव्रता के शाप से तत्काल कुष्ठी हो गया। प्रातः है, जिसकी सभा में मानतुंग उपस्थित हुए थे। काल शाल से शरीर ढा कर वह राजसभा मे पाया। मानतुंग सम्बन्धी इस परस्पर विरोधी पाख्यानो के मयूर ने 'वरकोढ़ी'२ कहकर बाण का स्वागत किया। अध्ययन से निम्नलिखित तथ्य उपस्थित होते है :बारण ने देवताराधन का विचार किया और सूर्य के स्तवन (१) मयूर, बाण, कालिदास और माघ प्रादि प्रसिद्ध द्वारा कुष्ठ रोग से मुक्ति पाई। मयूर ने भी अपने हाथ- कवियों का एकत्र समवाय दिखलाने की प्रथा १०वीं शती पर काट लिये और चण्डिका की-"मा भक्षीविभ्रमम्"- से १५वीं शती तक के साहित्य में उपलब्ध है। बल्लाल स्तति द्वारा अपना शरीर स्वस्थ कर चमत्कार उपस्थित कवि विरचित भोज प्रबन्ध में भी इस प्रकार के अनेक किया।
इति वृत्त हैं। इन चमत्कारपूर्ण दश्यों के घटित होने के प्रनन्तर
(२) मानतुग को श्वेताम्बर पाख्यानों में पहले
(२) मानतग को नेताar Emai किमी मम्प्रदाय-विपी ने राजा मे कहा कि यदि जैन दिगम्बर और पश्चात श्वेताम्बर माना गया है। इसी धर्मावलम्बियों में कोई गेमा चमत्कारी हो. तभी जैन यहां परम्परा के आधार पर दिगम्बर लेखकों ने पहले इन्हे रहें, अन्यथा उन्हें राज्य में निर्वामित कर दिया जाय। श्वेताम्बर और पश्चात् दिगम्बर लिया है। यह कल्पना मानतंग प्राचार्य को बुलाकर राजा ने कहा-'अपने सम्प्रदाय-मोह का ही फल है। दिगम्बर और श्वेताम्बर देवताओं के कुछ चमत्कार दिखलायो'। वे बोले-हमारे मम्प्रदाय में जब परस्पर कट्ता उत्पन्न हो गई और मान्य देवना वीतरागी है, उनके चमत्कार क्या हो सकते है। प्राचार्यों को अपनी ओर ग्यीचने लगे तो इस प्रकार के
विकृत निवनों का माहित्य में प्रविष्ट होना अनिवार्य १. प्रवन्धचिन्तामणि-सिंधी प्रथमाला, मन १९३३
हो गया। १०४४ । प्रभावकचरित के कथानक मे बाण और मयर
(३) मानतग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की। को मसुर और दामाद लिखा है। प्रबन्धचिन्तामणि के
दोनों सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार हमे श्लोक के चतुर्थ चरण में "चण्डि" के स्थान पर "मृभ्र"
अपनाया । प्रारम्भ में इस स्तोत्र में ४८ काव्य-पद्य थे। पाठ पाया जाना है।
प्रत्येक पद्य मे काव्यत्व रहने के कारण ही ४८ पद्यों को २. 'वरकोढी' प्राकृत पद का पदच्छेद करने पर वरक प्रोढी-शाल ओढ़ कर आये हो तथा अच्छे कुष्ठी बने ३. प्रबन्धचिन्तामणि, सिंधी ग्रंथमाला, १९३३ ई०, हो; ये दोनों प्रर्थ निकलते हैं।
पृष्ठ ४४.४५॥