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आचार्य मानतुङ्ग डा० नेमिचन्द्र शास्त्री एम. ए. पी. एच. डी.
मनुष्य के मन को सांसारिक ऐश्वर्यो, भौतिक सूखों "मानत गनामक: शिताम्बरो महाकविः निग्रंथाचार्यएवं ऐन्द्रियिक भोगों से विमुखकर बुद्धिमार्ग और भगवद्- ययरपनीतमहाव्याधिप्रतिपन्ननिर्ग्रन्थमार्गो भगवन् कि भक्ति में लीन करने के हेतु जैन कवि मानतग ने मयुर क्रियतामिति व वाणो भगवत: पदमात्मनो गुणगणस्तोत्र और बाण के ममान स्तोत्र-काव्य का प्रणयन किया है। विधीयतामित्यादिष्ट भक्तामर इत्यादि " इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही अर्थात्-मानतुग श्वेताम्बर महाकवि थे । एक सम्प्रदायों में समान रूप से समादत है। कवि की यह दिगम्बराचार्य ने उनको महान्याधि से मुक्त कर दिया, रचना इतनी लोकप्रिय रही है, जिससे इसके प्रत्येक इससे उन्होंने दिगम्बरमार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा मन्तिम चरण को लेकर समस्यापूत्मिक स्तोत्र-काव्य भगवन् ! अब मैं क्या करूं? आचार्य ने आज्ञा दी कि लिखे जाते रहे हैं। इस स्तोत्र की कई समस्यापूर्तियां परमात्मा के गुणों का स्तोत्र बनायो। फलतः प्रादेशाउपलब्ध है।
नुसार भक्तामर-स्तोत्र का प्रणयन किया गया। . प्राचार्य कवि मानतुग के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध मे वि० स० १३३४ के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्रसूरिकृत अनेक विरोधी विचार-धाराएं प्रचलित हैं । भट्टारक सकल- प्रभ
. प्रभावकचरित में मानतुंग के सम्बन्ध में लिखा है३ :चन्द्र के शिष्य ब्रह्मचारी रायमल्ल कृत 'भक्तामरवृत्ति'१
ये काशी निवासी धनदेव सेठ के पुत्र थे। पहले नोनित म
साला इन्होंने एक दिगम्बर मुनि में दीक्षा ली और इनका नाम है कि धाराधीश भोज की राजसभा में कालिदास, भारवि, चारुकीति महाकीर्ति रखा गया। अनन्तर एक श्वेताम्बर माघ आदि कवि रहते थे। मानत ग ने ४८ सांकलों को सम्प्रदाय की अनुयायिनी श्राविका ने उनके कमण्डलु के तोहकर जैनधर्म की प्रभावना की तथा राजा भोज को जल में त्रसजीव बतलाये, जिसमे उन्हें दिगम्बर चर्या में जैनधर्म का श्रद्धालु बनाया । दूसरी कथा भट्टारक विश्व- विराक्त हा गया भार जनासह नामक श्वेताम्बराचाय के भूपण कृत "भक्तामरचरित"२ मे है। इसमे भोज,भत हरि, निकट दीक्षिन होकर श्वेताम्बर साधु हो गये और उसी शुभचन्द्र, कालिदाम, धनञ्जय, वररुचि और मानतग को अवस्था में भक्तामर की उन्होने रचना की। समकालीन लिम्बा है। इसी पाख्यान में द्विसन्धान-महा- वि०म० १३६१ के मस्तुगकृत प्रबन्धचिन्तामणि प्रथ काव्य के रचयिता धनञ्जय को मानतुग का शिप्प भी मे लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला-बहनोई पडित बताया है।
थे। वे अपनी विद्वत्ता से एक-दूसरे के साथ स्पर्धा करते आचार्य प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका की थे। एक बार बाण पडित अपनी बहिन से मिलने गया उत्थानिका मे लिखा है .--
और उसके घर जाकर रात में द्वार पर सो गया। उसकी
मानवती बहिन रात में रूठी हुई थी और बहनोई रात १. इसका अनुवाद पं० उदयलाल काशलीवाल द्वारा
भर मनाता रहा प्रातः होने पर मयूर ने कहाप्रकाशित हो चुका है।
"हे तन्वगी! प्रायः सारी रात बीत चली, चन्द्रमा २. यह कथा जैन इतिहास-विशारद स्व. पं० नाथू- .. राम जी प्रेमी ने सन् १९१६ में बम्बई से प्रकाशित ३. मानतुगमूरिचरितम्-~-पृ० ११२.११७-मिधी भकतामर स्तोत्र की भूमिका में लिखी है।
ग्रंथमाला, १९४० ई.1