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प्राचार्य मानतुङ्ग
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संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहास विद्वान् डा. ए. दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभव वी० कोय ने भक्तामर-कथा के सम्बन्ध में अनुमान किया
पाकरेषु जलजानि विकासमाजि॥ है कि कोठरियों के ताले या पाशबद्धता ससारबधन का
-भक्तामरस्तोत्र पद्य (6) रूपक है। उनका कथन है
__ कल्याणमन्दिर में उपर्युक्त कल्पना को बीज रूप में _ "Perhaps the origin of the legend is स्वीकार कर बताया गया है कि जब निदाघ में कमल से simply the reference in his pocm to the power युक्त तालाबकी सरम वायु ही तीव्र प्राताप से संतप्त of the fine to save those in fetters, doubtless पथिकों की गर्मी से रक्षा करती है, तब जलाशय की बात meta-phorically applied to the bonds ही क्या ? उसी प्रकार जब आप का नाम ही संसार-ताप holding men to Carnal life."?
को दूर कर सकता है, तब भापके स्तोत्र के सामर्थ्य का अर्थात्सम्भवत. इम कथा का मूल केवल उनकी क्या कहना ? कविता में पाशों मे पाबद्धजनो के बचाने के लिए जिनदेव प्रास्तामचिन्त्यमहिमा जिन संस्तवस्ते की शक्ति के उल्लेख में है, जो निश्चय ही मनुष्यो को
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । सासारिक जीवन मे बांधने वाले पाशों के लिए स्पक है।
तीवातपोपहतपाय जनान् निदाधे, डा. कीथ ने मानत ग को बाण के समकालीन अनु.
प्रोणाति पसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥ मान किया है। सुप्रमिद्ध इतिहास १० गौरीशंकर
-कल्याणमन्दिर पद्य (७, हीराचन्द प्रोझा ने अपने सिरोही का इतिहास' नामक भक्तामर-स्तोत्र की गुणगान-महत्त्व-मूचक कल्पना का ग्रन्थ मे मानतुग का ममय हर्ष-कालीन माना है। श्रीहर्ष प्रभाव और विस्तार भी कल्याण मन्दिर में पाया जाता है, का राज्याभिषेक ई. सन् ६०७ (वि०म० ६६४) में भक्तामर स्तोत्र म बताया गया है कि प्रभो ! संग्राम में हृया।
मापके नाम का स्मरण करने से बलवान राजाम्रो का भी भक्तामर स्तोत्र के अन्तरग परीक्षण से यह स्पष्ट युद्ध करते हुए घोड़ो और हाथियो की भयानक गर्जना से युक्त प्रतीत होता है कि यह स्तोत्र कल्याण-मदिर का सैन्यदल उसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। जिस प्रकार पूर्ववर्ती है । कल्याण मन्दिर में कल्पना की ऊंची मूर्य के उदय होने में अधकार नष्ट हो जाता है। यथाउड़ान है वैसी इस स्तोत्र में नहीं है। अतः भक्तामर के बल्गुत्त रङ्गगजगजितभीमनादबाद ही कल्याण-मन्दिर की रचना हुई होगी। अत.
माजी बलं बलबत्तामपि भूपतीनाम् । भवनामर की कल्पनानां का पल्लवन एवं उन कल्पनानी उद्दिवाकरमयूखशिखापविढं में कुछ नवीननाम्रो का ममावेश चमत्कारपूर्ण शली में
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपंति ॥ पाया जाना है। भक्तामर म कहा है कि सूर्य की बात ही
-भक्तारम्तोत्र पद्य (४२) क्या, उसकी प्रभा ही तालाबो में कमली को विकगित
उपर्युक कल्पना का पादर कल्याणमन्दिर के ३२ कर देनी है। उमी प्रकार हे प्रभो! आपका स्तोत्र तो
पद्य में उभी प्रकार पाया जाता है जिग प्रकार जिनमेन के दूर ही रह पर प्रापकी नाम-कथा ही समस्त पापो को
पाश्वाम्युदय में मेघदून के पाद-गन्निवेश के रहने पर भी दूर कर देनी है। यथा
कल्पनाओं में रूपान्तर है । यथा-- प्रास्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोपं
यदगर्जदूजितघनौघमदभ्रभीम--- त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति
भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलधोरबारम् ।
दत्यन मुक्तमय दुस्तरवारि १.२-A history of Sanskrit literature
तेनव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् । 1941 Page-241-215 (Rehgious poetry).
कल्याण मन्दिर स्तोत्र पद्य (३२)