SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाबू छोटेलाल जी २८५ इसको लेकर उन्हें ऐसी बेचैनी थी, इतनी हमश थी कि को अपने पैसे से नहीं खरीदना चाहते। विद्वान चाहता उनके जीवन का उल्लास ही चुक गया था। उनके निकट- है भेंट में मिले, विद्यार्थी चाहता है पुस्तकालय से मिले, वर्ती यह जानते हैं। घटना ने वीर-मेवा-मन्दिर की गति धनवान चाहता है मन्दिर में स्वाध्याय के समय मिले। को भी अवरुद्ध कर दिया। अन्यथा आज वीर-सेवा-मन्दिर फिर शतशः ग्रन्थों का प्रकाशन हो और मुफ्त बाँटा जाय, के मुकाबले की दूसरी मस्थान होती। यद्यपि अन्तिम कब तक चल सकता है । अत. भारतीय ज्ञानपीठ जब समय में उस घटना की कसक से छटकारा देने के प्रयत्न घाटे से भरने लगा, तब हिन्दी के सृजनात्मक साहित्य की किये गए, किन्तु घाव इतने गहरे थे कि शायद न पूरे हो। बात चली। इसी समय लक्ष्मीचन्द्र जैन मन्त्री बने और यदि पुर गये हों तो यह बाबूजी की महानता थी। काश लोकोदय प्रथमाला की प्रतिष्ठा हुई। हिन्दी का विपुल ऐसा हया हो। उनकी सद प्रात्मा को शान्ति मिली हो। माहित्य ज्ञानपीठ मे निकला, निकल रहा है। उससे धन कल्पना ही सुखदायक है। मिला, ख्याति भी बढी। मस्था मूर्धन्य हो गई। किन्तु बाबूजी वाराणसी के स्यावाद महाविद्यालय को प्रादर जन प्रथा के प्रकाशन का स्वर दूर-दूर तर होता गया। और प्रेम की दष्टि से देखते थे। उसके छात्र जब-जब इससे बाबू छोटेलाल जी प्रतीव प्रपीड़ित थे। वे चाहते कलकत्ता परीक्षा देने गये, बाबू जी का असीम स्नेह प्राप्त थे कि भारतीय ज्ञानपीठ मे जैन अथो का प्रकाशन उसी किया। प्राचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी के प्रति बाबू जी के प्रकार हो जैसे हिन्दी के ग्रन्थों का होता है। उन्होंने हृदय में कितना सम्मान था, इसे मैं भली भाँति जानता लक्ष्मीचन्द्र जी को दो-चार बार कडे शब्दों में कहा । बाबू हूँ। उनके प्रति पं० जी का भी श्रद्धाभाव कम नहीं है। जी अब नहीं हैं; किन्तु लक्ष्मीचन्द्र जी उनके दिल की उनका पुत्र कलकता में उच्च पदस्थ है; किन्तु पण्डितजी बात जानते हैं। क्या ध्यान देंगे? मदैव ही बाबूजी के पास ही ठहरे। दो बड़ों का प्रेम बाबू जी भाग के बाला-विथाम को बहुत चाहते थे। जितना गौरवपूर्ण था उतना ही अनुकरणीय भी। बाबू बाबूजी ने उसकी गतिविधि का सदैव ध्यान रक्वा । मानजी ने समय समय पर स्यावाद महाविद्यालय की प्राथिक नीया चन्दाबाई जी से उनका पत्र-व्यवहार होता ही सहायता स्वयं की या अपने प्रभाव से करवाई, इमे वहाँ रहता था। वैमे उमकी प्रगति मे वे पूर्ण सन्तुष्ट थे। के अधिकारी जानते है। बाबू जी का निधन स्थाद्वाद उनकी तीव्र प्राकांक्षा थी कि जैन कन्यामों की शिक्षामहाविद्यालय के लिए भी एक बृहद् क्षनि है, ऐमा मैं दीक्षा उत्तम हो; किन्तु महशिक्षा और पाश्चात्य शैली अनुमान लगा पाता हूँ। का उन्होने सदैव विरोध किया। भारतीय नारी की बाबू जी भारतीय ज्ञानपीठ के डायरेक्टर्स में से एक विशुद्ध भारतीय रूपरेखा ही उन्हे रुचती थी। किन्तु इस थे। इस सम्बन्ध मैं मेरी उनसे बहुत बाते हुई हैं। उनमे मामले में उन्हें कट्टर नहीं कहा जा सकता। इसी कारण ही मुझे विदित हो सका कि ज्ञानपीठ का मूल उद्देश्य जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी इस मान्यता मे शिथिलता जैन वाङ्मय की शोध-खोज और उसका प्रकाशन-भर आई थी। मैंने उन्हें अनेक गरीब किन्तु प्रतिभाशालिनी था। उसके प्रथम संचालक प. महेन्द्रकुमार जी न्याया- छात्राओं की मदद करते देखा है। एक बार महास, प्रांध्र चार्य की नियुक्ति बाबू जी की सम्मति से ही हुई थी। और गुजरात की तीन छात्राओं के तीन पत्र प्राये। तीनों पण्डित जी की गम्भीर विद्वत्ता और सम्पादन-कला मर्व- एम० ए० के प्रथम भाग में उत्तीर्ण हो चुकी थीं। तीनों विदित थी। उस समय भारतीय ज्ञानपीठ के द्वाग अनेक प्राधिक मंकट में थीं। बाबू जी बहुत देर तक तीनों पत्र प्रसिद्ध जैन ग्रंथों का उद्धार और सम्पादन हुमा । किन्तु पढ़ते रहे, फिर मांध्र की छात्रा को सहायता देने का आर्थिक सन्तुलन ठीक रखने के लिए केवल जैन ग्रन्थों के निश्चय किया । आगे चलकर इस लड़की ने विश्वविद्या. विक्रय पर निर्भर नही किया जा सकता। हमारी दशा लय में टोप किया। मुझे पापचयं था कि पत्रों के माध्यम ऐसी है कि विद्याभिलाषी होते हुए भी, न-जाने क्यों ग्रंथों से ही वे प्रतिभा का प्राकलन कसे कर सके। एक बार
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy