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"जैनधर्म और जातिवाद"
श्री कमलेश सक्सेना, मेरठ
जैन धर्म का उदय कुछ ऐसे महान पादों को लेकर न मानते हुए भी उसको वृहत सामाजिक हित में मान्यता हना था जिसके कारण यह शीघ्र ही सम्पूर्ण भारत में देने का प्रयत्न करते हुए दीखते हैं। पर दूसरी मोर ऐसी फैल गया । रूढ़िवादिता एवम् यज्ञ, अनुष्ठानों के विरोधी व्यवस्था जैनधर्म के प्रतिकूल होने के कारण कुछ समय होने के साथ ही यह धर्म जातिवाद का कटु शत्रु था। तक उनके द्वारा कटु आलोचना का क्षेत्र बनी रही। पार्श्वनाथ और उनके पश्चान् महावीर ने ब्राह्मणों के वरागचरित में जटासिंह नन्दी लिखते हैं कि-सम्पूर्ण प्राणीधार्मिक विश्वासों और पद्धतियों पर सफलतापूर्वक प्राक्षेप मात्र एक 'सर्व शक्तिमान' की सन्तान होते हुए विभिन्न किए थे। आगमों में किसी भी स्थान पर जातिवाद को जाति के कैसे हो सकते है । उदाहरणार्थ एक उदम्बर के अच्छा नहीं बतलाया गया। परन्तु समय के परिवर्तन के वक्ष पर उदम्बर फल के अतिरिक्त कोई भिन्न जाति का साथ-साथ जैन धर्म की मान्यताओं में परिवर्तन आने फल नहीं लगता४ । परन्तु ये वस्तु स्थिति मध्यकालीन युग लगा और जैन आचार्यों ने जातिभेद को स्वीकृति देनी में बदलने लगी और जैन समाज चारों वर्गों को स्वीकार प्रारम्भ कर दी।
करने लगा। यह पृथक् बान है कि उस समय तक यह वैसे तो जैन आचार्य प्रारम्भ से ही समाज का
जाति के कठिन बन्धन से मुक्त रहे, क्योंकि जैन धर्म विभाजन चार वर्षों में मानते चले आए है। परन्तु जैन
निरन्तर कर्मों की प्रधानता पर बल देता । यही धर्म में इस वर्ण भेद को पुस्तकों में स्थान देने वाले सर्व
कारण था कि एक ब्राह्मण को जैन समाज उसी समय तक प्रथम आदि पुराण के लेखक जिनसेन प्राचार्य हुए । उनके
ब्राह्मण मानने को तैयार था जब तक कि वह अपने वर्ण मतानुगार वृषभदेव ने सबसे पहले तीन वर्णों की रचना
के कर्तव्य का पालन करता या अन्यथा वह चांडाल था५ । की। जो लोग रक्षा का कार्य करते थे उनको क्षत्रिय की
इस प्रकार से जैनमतानुसार ब्राह्मण केवल वही व्यक्ति था संज्ञा दी, जो लोग खेती-बाड़ी कर जीवकोपार्जन करते ।
जो कि व्रत, तपस्या और ब्राह्मणों के अनुरूप कर्तव्य का थे व वैश्य कहलाते थे तथा जो मेवा कार्य करते थे वे पाल' शद्र कहलाते थे२ । आगे चलकर ब्राह्मण वर्ण का जन्म इसी प्रकार से जो व्यक्ति रक्षा कार्य में संलग्न थे दूसरे वर्णो के धार्मिक कृत्यों के लिए हुमा ।
उन्हें क्षत्रिय की संज्ञा दी जाती थी। सोमदेवसूरी के परन्तु यह ध्यान देने का विपय है कि जैन धर्म जन्म अनुमार क्षत्रियों का कर्तव्य था कि वे कमजोर, अपाहिज, पर आधारित जाति को मानने को तैयार उस समय तक अन्धे, रोगी और अनाथ व्यक्तियों की महायता करे६ । नही हुया था। प्राचार्य अमितगति भी जन्म को वर्ण में विशेष ध्यान देने की बात यह है कि क्षत्रिय धर्म के कोई महत्ता नहीं देते थे वरन उनके अनुसार एक व्यक्ति अन्तर्गत जैन प्राचार्य शस्त्रों का प्रयोग निर्वाध रूप से का जीवनयापन का साधन ही उसके वर्ण का द्योतक करने के पक्ष में नहीं है। उदाहरण के लिए कुछ व्यक्तियों है३ । परन्तु नवीं व दसवीं शताब्दी के प्राचार्य जाति को को बचाने के लिए किसी निर्दोप व्यक्ति को मारना सर्वथा
१ सोमदेव सूरी-पशसतिलकचम्पू. ७ पृष्ठ ३७३ ४ . वरांगचरित-२५. २-४. २. जिनसेन-प्रादि पुराण पर्व १६. १८४ पृ० ३६२५. रविपण प्राचार्य-पद्म पुराण ११. २०३. ३. धर्म परीक्षा-१७. २४.
६. नीतिवाक्यामृत-७. ८.