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अनेकान्त
अनुचित समझा जाता था । ब्राह्मणों की भांति क्षत्रियों समय के व्यतीत होने के साथ-साथ जैन समाज इस जातिको कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे। जैनधर्मावलम्बियों वाद से अछूता नहीं रह सका। उसमें भी जन्म के आधार को क्षत्रिय वर्ण अपनाने की मनाही नहीं थी यद्यपि वे पर आगे चलकर वर्ण बनने लगे । २०वीं शताब्दी मे यह अहिंसा के पोषक थे।
वर्ण उपजातियों में विभाजित हो गए। विभिन्न विद्वानों वश्य जाति के लोग अधिकतर व्यापार और कृषि के द्वारा संकलित इन उपजातियों की संख्या १०० से भी कार्य करते थे। इसके अतिरिक्त पशुपालन का व्यवसाय अधिक पहुँचती है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी वर्ग है भी इस वर्ण के लोग कर सकते थे। व्यापारी होने के जो कि जैन रीति-रिवाजों को मानते हैं और उनकी कारण यह वर्ग धनी था । खजुराहो के एक जैन मन्दिर से गणना उपजातियों में नहीं की गई है और यह वर्ग रत्नप्राप्त अभिलेख से पता चलता है कि वैश्य लोग राजा के गिरि जिले में मिलता है१० । मुख्यतया जैन उपजातियांद्वारा भी धनी होने के कारण सम्मान पाते थे। सोमदेव प्रोसवाल, श्रीमाल, अग्रवाल, खण्डेलवाल, संतवाल, ने वैश्यों के लिए शिक्षा संस्थानों के लिए दान देना और परवार, चतुर्थ और पंचम है। इनमें से कुछ के रीतिमाश्रयगृह खुलवाना मुख्य धर्म बतलाया है।
रिवाज तो समान है और कुछ के भिन्न हैं, जिसके लिए जैन प्राचार्यों ने हिन्दू धर्म की भांति शूद्रो का कर्तव्य धर्म में प्रांतरिक विभाजन भी उत्तरदायी है । इस प्रकार द्विजाति की सेवा बतलाया है। जैन धर्म के अनुसार कोई से आज वर्गों के स्थान पर उपजातिया ही रह गई हैं। भी व्यक्ति अछूत नहीं कहा जा सकता। परन्तु व्यवहार मे फिर भी इतना आवश्य है कि जैन समाज में जातिवाद सत् और असत् शूद्रों का वर्णन मिलता है। द्विजातियों को बंधन कठोर नही हुए हैं और एक वर्ग से कार उठने के सेवा कार्य के अतिरिक्त शुद्र मूर्तिकार, चित्रकार, गायक लिए द्वार सदैव ही खुला हुपा है । इस क्रिया को 'वर्णतथा चारण का कार्य भी करते थे। जैन प्राचार्यों के लाभ' क्रिया कहते है११।। अनुसार एक शूद्र भी यदि शुभ कर्म करे तो मोक्ष को
संसार को अहिंसा का सदेश देने वाले जैन धर्म को प्राप्त कर सकता है।
इस समय में न केवल अपने समाज में एकता लाने का उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैनधर्म ने हिन्दुओं
प्रयत्न करना चाहिए अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में जटासिंह के जातिवाद को मान्यता नवीं एम दसवीं शताब्दी में
नन्दी के उपदेश को प्रतिपादित करना चाहिये जिससे कि देनी प्रारम्भ कर दी थी। केवल इतना ही नही वरन सम्पूर्ण प्राणीमात्र एकता के सूत्र मै बँधकर एक-दूसरे की ७. आदिपुराण-४२. १३.
सहायता करे। ८. एपीग्राफी इंडिका-५. पृ० १३६.
१०. विलास प्रादिनाथ संघवे-जैन कम्युनिटी, पृ०७३-७४ ६. नीतिवाक्यामृत-७ ६.
११. प्रादिपुगण-३६. ७१
उपदेशक पद
भैया भगवतीदास प्रोसवाल जो जो देल्यो वीतराग ने सो सो होसी वीरा रे । विन देख्यो होसी नहिं क्यों ही, काहे होत अधीरा रे ॥१॥ समयो एक बढ़े नहि घटसी, जो सुख दुख की पौरा रे । तू क्यों सोच कर मन कड़ो, होय वन ज्यों हीरा रे ॥२॥ लगे न तीर कमान बान कहुं, मार सके नहिं मीरा रे। तुं सम्हारि पौरुष बल अपनो, सुख अनंत तो तीरा रे ॥३॥ निश्चय ध्यान बरह वा प्रभु को, जो टार भव-भीरा रे। 'भैया' चेत परम निज अपनो जो तार भव-नीरा रे ॥४॥
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