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अनेकान्त
प्रस्तुत प्रति लिपि प्रशस्ति बड़ी ही महत्व पूर्ण है। १५०८ से १५४६ तक राज्य किया है। उस समय सिंहयह उस समय लिखी गई जब योगिनीपुर (दिल्ली) में नन्दीपुरी में भगवान शान्तिनाथ का सुन्दर मन्दिर बना हुआ बहलोल लोदी का राज्य चल रहा था । बहलोल लोदी धा। जिसमें प्रतिदिन देवार्चन होता था, चैत्र, भाद्र और ने सं० १५०८ से ई० सं० १४५१ से १४८६ वि० सं० माघ महीने में तथा प्राष्टान्हिक पर्व में विधिवत अभि
षेक पूजा गीत नृत्यादिक मंगल कार्य सम्पन्न किये जाते अधिकांश की लिपि प्रशस्तियां उन्हीं के द्वारा पद्यों में - लिखी गई हैं। उनमें सं० १५१६, १५१८, १५१६, बादशाह तुगलक द्वारा सम्मानित हुए। और सहदेव के १५२१, १५२७, १५३३, १५४१ और सं० १५४२ पुत्र सहजपाल ने जिनेन्द्र मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी, और में लिखी गई हैं। ये ग्रन्थ दात्री प्रशस्तियां बड़ी ही उक्त सहजपाल के पुत्र ने गिरनार की यात्रा का संघ महत्त्वपूर्ण हैं । जब सं० १५१६ में तिलोयपण्णेत्ती की चलाया था और उसका कुल भार स्वयं वहन किया था। ये प्रशस्ति लिखी गई उस समय हिसार का नवाव क्याम सब ऐतिहासिक उल्लेख हिसार के अग्रवालों के लिये खां का बेटा कद्दन खा था, जिसे कुतुबखान भी कहते महत्वपूर्ण हैं। हिसार के खेल्हा ब्रह्मचारी ने ग्वालियर के थे। सं० १५३३ मे प्राध्यात्म तरगिणा के हिसार में दुर्ग में चन्द्रप्रभ की विशाल मूर्ती का निर्माण कराया था। लिखते समय भी उक्त कुतुबखान का ही राज्य था। और इसी खेल्हा की प्रेरणा से ही साह तोसउ के लिये
संवत् १५१४ में हेम शब्दानुशासन की एक प्रति रइधू कवि ने सन्मति जिन चरित्र की रचना की थी। मेधावी को बहलोल लोदी के राज्यकाल में हिसार में भेट सम्वत् १५४६ में चैत वदी ११ शुक्रवार के दिन सुलतान दी गई है। इससे इतना और भी ज्ञात हो जाता हैं कि सिकन्दर के राज्यकाल में रइधू कवि का पार्श्व पुराण वहां भट्टारकीय गद्दी स० १५१४ से पूर्ववर्ती है। कितनी लिखा गया था, उस समय कोट में महावीर जिन चैत्यालय पूर्ववर्ती है यह अभी विचारणीय है। इस गद्दी का सम्बन्ध मौजूद था-श्री हिसारे फेगेजाकोटे श्रीमहावीर चैत्यालये भी दिल्ली से था, और नागौर, पामेर, ग्वालियर और सुलितानसाहि सिकन्दर राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंधे पारा आदि स्थानों की गद्दियों का सम्बन्ध भी दिल्ली से माथुरान्वये पुष्करगणे"-कोट का वह मन्दिर जैनियों की ही रहा है । शिष्य परम्परा बढ़ जाने के कारण दिल्ली के उपासना का केन्द्र बना हुआ था। सम्वत् १५४२ मे अतिरिक्त स्थानों पर गद्दिया कायम की गई, और उनमें कातिक सुदि ५ गुरु दिने श्री वर्द्धमान चैत्यालये विराजप्रमुख शिष्यों को भट्टारक बनाकर गद्दीधारी बना दिया माने श्री हिसार पिरोजापत्तने सुलितान बहलोल साहि जाता था। ऐसा भी संकेत मिलता है, कि पहले प्राचार्य राज्य प्रवर्तमाने श्री मूलसंधे आदि दिया है। पद, फिर मडलाचार्य और बाद में भट्टारक पद पर सम्वत् १७०० में दिल्ली गद्दी के भट्टारक महेन्द्रसेन प्रतिष्टित किया जाना था।
के शिप्य भगवतीदास ने हिसार में कोट के उक्त महावीर महाकवि रइधु ने अपने मन्मति जिनचरित्र की प्रशस्ति चैत्यालय में 'मृगाक लेखा चरित' नामक ग्रन्थ की रचना मे हिसार को फिरोजशाहतुगलक द्वारा बसाया हुया की थी। वतलाया है। और उमे कोट खाई, वन और उपवन रइयो कोट हिसारे जिणहरि वरवीर वड्ढमाणस्स। आदि से शोभित प्रकट किया है
तत्त्व ठियो वयधारी जोईदासो वि बंभयारीयो। (जोयणिपुगउ पच्छिम दिसाहि, मुपसिद्ध णयर बहु सुय भागवई महुरीया वत्तिगवर वित्ति साहणा विणि ।
जुयाहि । मइ बिबुध सु गंगारामो तत्थ ठियो जिणहरे मइवंतो॥ णामें हिसार फिरोज अत्थि, काराविउ पेरोज साहिजि ससिलेहा सुय बंधु जे महिउ कठिण जो आसि ।
अत्थि। महरि भासउ देसकरि वणिक भगोतिदासि ।। हिसार के अग्रवालवंशी साहु नरपति के पुत्र, साहु इन सब उल्लेखों पर से हिसार में जैन धर्म के गौरव बील्हा, जो जैन धर्मी और पाप रहित थे, दिल्ली के की झलक अनायास मिल जाती है ।