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________________ सोलहवीं शताब्दी की दो प्रशस्तियाँ परमानन्द शास्त्री इतिहास के अनुसन्धातानों को प्रशस्तियाँ उतनी हो कर्मठ कार्यकर्ता थे। वे मूलमंघान्तर्गत नन्दिसंघ के बलाउपयोगी हैं जितने कि शिलालेख और ताम्र-पत्रादि हैं। त्कार गण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। उनके अनेक कभी-कभी इनमें महत्व की सामग्री मिल जाती है, जो शिष्य थे। भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ किसी तथ्य के निर्णय में सहायक हो जाती है। पुरातन भारत के कोने कोने में पाई जाती हैं। संवत् १५४७, लिखित साहित्य में दो प्रकार की प्रशस्तियाँ उपलब्ध होती १५४८ की मुडासा नगर में प्रतिष्ठित सहस्रों मूर्तियां हैं। एक ग्रंथ प्रशस्तियां, जिनमें ग्रंथकार एवं ग्रंथ का रचना विविध स्थानों के मन्दिरों में प्रतिष्ठित हैं, सं० १५०४ काल और ग्रन्थ-निर्माण में प्रेरक श्रावक प्रादि का वर्णन और सं० १५०७ की प्रतिष्टित मूर्तियाँ भी मिलती हैं। निहित रहता है। दूसरी लिपि प्रशस्तियां हैं, जिन्हें कोई इनकी दो कृतियाँ उपलब्ध है। सिद्धान्तसार प्राकृत और दानी महानुभाव अपनी ओर से उन ग्रन्थों की प्रतिलिपि संस्कृत भाषा का चतुर्विशतिस्तव जो अनेकान्त वर्ष ११ कि. करवा कर साधुओं, भट्टारकों, प्राचार्यों या व्रती श्रावकों ३ में प्रकाशित हो चुका है। इनके समय के अथवा जिनकी तथा मन्दिर जी को भेंट करते हैं। इन दोनों प्रकार की लिपि प्रशस्तियों में इनका गुरुरूप से उल्लेख किया गया प्रशस्तियों से सामाजिक, धार्मिक और ऐतिहासिक इति- है उनकी शिष्य परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान मेधावी थे, वृत्तों के साथ तात्कालिक रीति-रिवाजों पर भी प्रकाश जो संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान कवि थे। इनका वंश पडता है। यहाँ इस लेख द्वारा १६वीं शताब्दी की दो अग्रवाल था, पिता का नाम उद्धरण और माता का नाम संस्कृत पद्यबद्ध प्रशस्तियों का परिचय देना उपयुक्त भाषुहा था भीषही था वे प्राप्त मागम के श्रद्धानी मौर जिन चरणों समझता हूँ। जो ऐतिहासिक और सामाजिक अनुसन्धान के भ्रमर थे। पं० मेघावी अधिक समय तक हिसार में योग्य सामग्री प्रदान कर सकें। रहे थे। नागौर में भी रहे, और वहां रहकर उन्होंने सं० १५४१ में मेधावी संग्रह श्रावकाचार पूरा किया संवत १५२१ को प्रथम लिपि प्रशस्ति : था। किन्तु उनका मुख्य स्थान हिसार था। हिसार की दिल्ली के नया मन्दिर धर्मपुरा के शास्त्र भण्डार में भट्टारकीय गद्दी उस समय सक्रिय थी, वहां ग्रंथ लेखन का श्वेताम्बरीय विद्वान सिद्धसेनगणी की तस्वार्थ भाष्य टीका कार्य भी सुचारु रूप से चलता था। की एक प्रति मौजूद है, जिस पर सं० १५२१ की उक्तप्रशस्ति १. हिसार दिल्ली से पश्चिम दिशा में बसा हुआ है । यह अंकित है । यद्यपि वह प्रति इतनी पुरानी नहीं है-लग प्राचीन प्रसिद्ध नगर है। अग्रवालों का इस नगर के भग सौ वर्ष के भीतर की लिखी हुई जान पड़ती है, किन्तु साथ खास सम्बन्ध रहा है, क्योंकि अग्रोहा हिसार के वह प्रति पुरानी होगी, जिस पर से इसकी प्रतिलिपि की पास ही है, जो अग्रवालो की उत्पत्ति का जनक गई है। उक्त प्रशस्ति भट्टारक जिनचन्द्र के प्रधान शिष्य तथा ऐतिहासिक स्थान है। हिसार किसी समय जैन पं० मेधावी द्वारा लिखी गई है। सस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है और आज भी वहां विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली गद्दी के जैनियों की अच्छी बस्ती है। १५वी शताब्दी में तो भट्टारक जिनचन्द्र बड़े विद्वान और प्रभावशाली सन्त थे। वहां के मूवेदारों के अनेक जैन मंत्री रहे हैं। उस प्राकृत और संस्कृत भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। समय वहां जैनियों की अच्छी प्रतिष्ठा थी। पं. भट्टारक जिनचन्द्र उस समय के सामर्थ्यवान वक्ता और मेधावी के समय अनेक ग्रन्थ लिखे गये, उनमें
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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