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सोलहवीं शताब्दीको दो प्रशस्यिा
थे। और मुनिजन उपदेश देते थे। वहां पर मूलनंघान्त- लिखाकर प्रदान किया गया। इस तरह यह प्रशस्ति गंत नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ में दर्शन अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश डालती है और देव पूजा ज्ञान चारित्र, तप और वीर्य से समन्वित प्रभाचन्द्र नाम के साथ ज्ञान दान की प्रवृत्ति को प्रकट करती है। के प्राचार्य थे। उनके पट्ट पर पद्यनन्दी हुए, जो प्राकृत प्रथम लिपि प्रशस्ति : संस्कृत भापा के विद्वान, मंत्र-तत्र शक्ति सम्पन्न थे । बडे
स्यावाद केतुर्जित मीनवे तुर्भवाविसे तज्जनि सौस्यहेतुः । प्रभाविक एवं तपस्वी थे। इनके पट्ट धर शुभचन्द्र हुए, और
जिनेन्द्रचन्द्रः प्रणमन्सुरेन्द्रः, कुर्यात्प्रभाव. प्रकट प्रभावः ।। शुभचन्द्र के पट्टधर जिनचन्द्र हुए, जिनका सक्षिप्त परिचय
यदा जना याति पारं संसार वारिधेः । पहले दिया जा चुका है। उक्त पद्मनन्दि के प्रभावशाली
अनन्त महिमाढ्यंतज्जन जयति शासनम् ॥२ शिप्यों में सकलकीर्ति भी हुए, जिन का समय सं०
जयन्तु गौतम स्वामि प्रमुख्या गणनायकाः । १४४३ से १४६६ है । अपने समय के तपस्वी और प्रभाव
सूरिणो जिनचन्द्राता श्रीमन्तः क्रमदेशकाः ॥३ माली विद्वान थे । इनके शिष्यो से राजस्थान मे अनेक
वर्षे चन्द्राक्षिबाणक १५२१ पूरणे विक्रमेनतः । गद्दियां कायम हुँई थी। सकलकीति के जयकीति नाम के
शुक्ने भाद्र पद मासे नवम्वा शनिवासरे ॥४ मुनि उत्पन्न हुए, जो उत्तम क्षमादि दश धर्मों के धारक
श्री जम्पपदेद्वीपे क्षेत्र भरतमंजके। थे और जिन्होंने दक्षिण तथा उत्तर देशों में जाकर जैन
कूरुजागलदेशोस्ति यो देशाः मुख-सम्पदा ॥५ धर्म का उद्योत किया था वे उसी सिहतरंगिणीपुरी मे
तत्रास्ति हस्तिना नामा नगरी मा गरीयसी। पाये, उनके उपदेश से भव्य जीवो ने सम्यक्त्व ग्रहण
शाति कुवर नीर्थशा: यत्रा सन्निद्र वदिता ॥६ किया और कुछ ने अणुव्रत महाव्रत ग्रहण किये। उनके
विद्यते तत्समीपस्था श्रीमती योगिनीपुरी। शिप्य कामजयी उग्र तपस्वी हरिभूपण हुए और हरि
यां पाति साहि श्री बहलोलामिधो नृपः ।।७ भूपण के भवभीरू शिष्य सहस्त्रकीति । जिसने भ्रातृ
यच्छाशनातपत्रेण भूपिता जनता हिता। पुत्रादि का मोह छोड़कर दीक्षा गहण की थी। वहा
सिंहनंद्यभिधानेन पुरी देव मनोहरी ॥ क्षात्यादि गुरण विशिष्ट गंधर्वश्री नामकी प्रायिका भी थी।
तत्र श्री शान्तिनाथस्य मन्दिरं भूति सुन्दरं । इसी माम्नाय मे खण्डेलवाल वंश और गोधा गोत्र रत्न काचन मत्स्तभ कलशध्वज गजित
यत्र श्रद्धा पगथाद्ध स्त्रिकाल देवताचंन । मे माहु कुमारपाल नाम के श्रेष्ठी हए, जो श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान करते थे। उनके पुत्र पसिंह थे उनको
कुर्वन्ति सोन्सवं भक्त्या विधिवत्स्नानपूर्वक ॥१०
चत्रे भाद्रपदे माघेऽष्टान्हिक पर्वरिण । पत्नी का नाम मेहिनी था, उससे तीन पुत्र हुए थे, घेरू, मीहा और चाहड । इनमे घेरू तिलोयपण्णत्ती की
अभिषेकाश्च जायते यत्र मण्डल पूर्वकं ॥११ प्रशस्ति के अनुसार बहलोल लोदी से सम्मानित था।
गायंनि यत्र मन्नार्यो मागन्यानि जिनेशिना । (मानित: सुरितानेन बहलोलाभिधेन यः) । इस तरह
वादयंनि च वाद्यानि नृत्यंति पुरुपोत्तमा ॥१२ चतुर्विध संघसिंहनन्दिपुरी के सुशर्मनगर में जाकर और
सच्छाया पात्र संयुक्तं, मुमनोभिसमंचितं । उन्नत जिन मन्दिर में जहां सुसरिता बहती थी, और फलदायक मुच्चस्थ ना
फलदायक भुच्चस्थं नानाश्रवण मेवितं ॥१३ मनोहर वृक्ष समूहों से अलंकृत स्थान मे निमित मण्डप यदुद्दिश्य समागत्य चतुर्दिश्यो मनीश्वग.। शास्त्रोक्त विधि से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का कार्य विश्राम्यति च बंदित्वा महाममिवाध्वगाः ॥१४ (युग्म) सम्पन्न हुमा, और ऋपभादि तीर्थकरों की मूतियों की पूर्वजन्मज पापंधो गशि मंदग्ध भिक्षुकः । प्रतिष्ठा की गई, और नवनिर्मित मन्दिर में उन ऋषभादि भव्यरुक्षिक्रकप्पूर कृष्णागुरुज धूपजं ॥ १५ तीर्थकरों की मूर्तियां विराजमान की गई, और उन्ही की मण्डलीभूत मालोक्य धूमं खेमेद्य शंकिनः । वित्त सहायता से उक्त तत्त्वार्थाभिगम भाष्य टीका को प्रकाण्डे तांडवं टोपं यत्र तन्वंति वहिणः ॥१६