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अनेकान्त
विक्रम की तीसरी शताब्दी के विद्वान् प्राचार्य समन्तभद्रने थे, उनका हृदय अनुकम्पा से द्रवित हो गया था। इतना ही अपने स्वयम्भूस्तोत्र के पार्श्वनाथ स्तवन में निम्न रूप से नहीं किन्तु उनके अनेक अनुयायी भी अहिंसा के पथिक व्यक्त किया है :
बने थे। उस समय के इतिहास लेखकों ने उस पर प्रकाश "यमीश्वरं वीक्ष्य विधूत-कल्मषं,
डाला होगा। बंगीय साहित्य के इतिहास में भी कुछ तपोषनास्तपि तथा भूषवः।
लिखा गया है। उस समय अंग-बंग और कलिंगादि बनौकसः स्व-बम-बन्ध्य-युदयः,
प्रदेशों में वैदिक संस्कृतिका प्रचार नगण्य-सा रह गया था। शमोपदेशं शरणं प्रेपविरे॥" इससे रुष्ट होकर कुछ विद्वानों ने अंग-बग-कलिंगादि की इस पद्य में बतलाया गया है कि-विधूत-कल्मष- यात्रा पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया था और मौराष्ट्र से घातिकर्म रूप पाप-कर्म से रहित-शमोपदेश-मोक्ष- लेकर वृहत् जनपद को प्रार्य मंडल से बहिर्भूत कर दिया मार्ग के उपदेशक और ईश्वर-सर्वलोक के प्रभु के रूप था और यात्रा करने पर प्रायश्चित्त करना पड़ता था में उन पार्श्वनाथ प्रभु को देखकर वनवासी तपस्वी भी जैसाकि निम्न पद्य से स्पष्ट है .शरण में प्राप्त हुए-मोक्षमार्ग में लगे जो अपने श्रमको अंग-बंग-कलिगेष सौराष्ट्र मगधेषु च । पंचाग्नि तपरूप अनुष्ठान को-प्रवन्ध्य (विफल) समझ तीर्थयात्रा विनागच्छन् पुनः संस्कारमहति ॥ गए थे और भगवान पार्श्वनाथ जैसे होने की इच्छा रखते थे।
इससे पाठक सहज ही जान सकते है कि उस समय इस महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख प्राचार्य गुणभद्र के भगवान पार्श्वनाथ का उन देशों में कितना प्रभाव अंकित उत्तर पुराण में मोर महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण में
था। उन्होंने लोककल्याण के लिए जो उपदेश दिया था पाया जाता है । और उनमें इन साधुनों की संख्या सात
वह सम्प्रदायातीत था। और वह वही था जिसे पहले सो बतलाई गई है।
अजितादि तीर्थकरों ने दिया था। भगवान पाश्वनाथ न कार वादक क्रियाकाण्डाका भारी इस तरह पार्श्वनाथ ने लोक-कल्याण का भारी कार्य विरोध किया था, और तत्कालीन क्रिया काण्डी विद्वानों पर किया, उससे श्रमण संस्कृति को बल मिला । और उसका उनके उस अहिंसक उपदेशका बहुत प्रभाव पडा था और वे प्रचार और प्रसार भी हमा। पार्श्वनाथ ने जिस अहिंसा हिंसक क्रिया काण्डों को छोड़कर अहिंसा धर्मके धारक बने ।
का प्रचार किया और वैदिक शुष्क क्रिया काण्डों का
प्रतिषेध किया उससे अहिंसा को पूर्ण प्रश्रय मिला। १. प्रापत्सम्यक्त्व शुद्धिं च दृष्ट्वा तद्वनवासिनः । (क)तापसास्त्यक्त्वमिथ्यात्वाः शतानां सप्तसंयमम् ।। भगवान पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम कहा जाता
-उत्तरपुराण है। जिसका अर्थ है छेदोपस्थापना को छोड़कर शेष (ख) सम्मत्तलयउखल संवरेण, उवसंते ववगयमच्छरेण। सामायिक प्रादि चार चारित्रों का विधान, उसमें मावश्यसम्वणवासिहि संपत्तवत्त, इसिजायइं तवसिहि समइ सत्त। कता होने पर प्रतिक्रमण की व्यवस्था थी। इसके सम्बन्ध
-महापुराण पुष्पदन्त सं०६४ पृ० २१२ में फिर कभी स्वतन्त्र लेख द्वारा विचार किया जायगा।