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भगवान पार्श्वनाथ
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के अनन्त भण्डार थे। तपश्चरण से उनमा मांस और सरोवर में कीड़ा करने वाले हम है। इन्द्रिय रूपी विषधर खुन गुष्क हो गया था। शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, सों को रोकने के लिए मत्र है, मात्म-समाधि में चलने किन्तु प्रात्म-तेज बढ गया था। उनके तपम्वी वाले हैं, केवलज्ञान को प्रकाशितकरने वाले सूर्य हैं, जिनेश्वर जीवन की याद माने ही गेंगटे खडे हो जाते हैं। वे स्व- हैं नासाग्रदृष्टि है, श्वास को जीतने वाले हैं, जिनके बाहु पर-तत्त्वज्ञानी समता-साधको में अग्रणीय थे।
लम्बायमान है और जिनका शरीर व्याधियों से रहित है, एक समय वे वन म क गिला पर ध्यानस्थ थे। जो सुमेरु पर्वत के समान स्थिर चित्त हैं।" उम ममय उनकी प्रात्म-चिन्तन में निमग्न सौम्य मुद्रा भगवान पार्श्वनाथ की यह ध्यान-स्थिति स्वात्म-स्थिति देखते ही बनती थी। वे साम्यभाव में अवस्थित थे और को प्राप्त करने की एक कसोटी है। जो क्षपक-श्रेरिण पर ध्यानाग्नि द्वारा कर्म पज को जलाने की शक्ति-पंचय मे प्रारुढ़ हो रहे है। उनकी इस साम्यावस्था के समय मंलग्न हो रहे थे। उनकी सुस्थिर महा से कोई रोम भी उनके पूर्व जन्म का बरी कोई सम्बर नाम का देव इधर-उधर नही मटकता था, उनकी उम निश्चल ध्यान-मुद्रा भात
प्राकाश मार्ग से कही जा रहा था, सहसा उसका विमान का कवि देवचन्द्र ने पाश्वनाथचरित में निम्न रूप से अटक गया बार उन्ह
अटक गया और उन्हें ध्यानस्थ देखते ही उसका पूर्व अंकन किया है :
संचित वर-भाव भड़क उठा, उसने पाश्वनाथ पर घोर
उपसर्ग किया, ईट पत्थर, धूलि मादि को वर्षा की, "तत्थ सिलायले चक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो वंदो। भयानक कृष्ण मेघों में सर्वत्र अन्धकार छा गया, अपार पंच महव्वय उदय कंधो, जिम्मम चत्त चउम्विह बंधो। जलवष्टि हई, मघो की भीषण गर्जना और विद्युत को जीव दयावह संग विमुक्को, गं बहलक्खणु धम्मु गुरुक्को । दमकन से दिल दहलने लगा, पृथ्वी पर चागे मोर पानी जम्म-जरा-मरणुज्झिय बप्पो, बारस भेय तवस्स महप्पो।
ही पानी दिखाई देने लगा। ऐसा धार उपसर्ग करके भी मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयावरण गिरितुंगो। वह पार्श्वनाथ को ध्यान से र मात्र भी विचलित न कर संजम-मील-विहूसिय-वेहो, कम्म-कसाय-हुयासण मेहो। सका । उसी समय वे दोनों नाग नागिनी जो धरणेन्द्र और पुष्फंधणु वर तोमरसो, मोक्ख महासरि कीलण हंसो। पद्मावती हए थे अपने उपकारी पर भयानक उपसर्ग जान इंदिय-सप्पह-विसहर मतो, अप्पसरूव-समाहि सरंतो।
कर तुरन्त पाताल लोक से प्राये। पद्मावती ने अपने केवलणाप-पयासण-कंख, घाण पुरम्मि निवेसिय चक्खू ।
मुकुट के ऊपर भगवान को उठा लिया और धरणेन्द्र ने णिजिकय सासु पलविय वाहो, निच्चल-देह-विसज्जिय वाहो
सहन फण वाले सर्प का रूप धारण कर, और अपना कंचण सेलु जहां घिर चित्तो, दोषकछंद इमो बुह बुत्तो॥" फण फैलाकर उनकी रक्षा की । उमी समय पाश्वनाथ ने
भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए पूर्णज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त किया। है । वे मन्त-महन्त और त्रिलोकवर्ती जीवो के द्वारा बन्द- महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनानीय हैं। पञ्च महाव्रतों के धारक है, निर्ममत्व है और भगवान के कवलज्ञान की पूजा करने के लिये इन्द्राप्रकृति, प्रदेश स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के दिदेव पाने लगे। उनकी दिव्य देशना को सुनकर उस बन्ध मे रहित है। दयालु और मग (परिप्रह) विमुक्त जोतिपी मम्बरदेव ने उनके चरणों में अपने अपराध की है, दश लक्षण धर्म के धारक है, जन्म-जग और मरण के क्षमा-याचना की और मिथ्यात्व का वमन कर सम्यक्त्व दर्प मे रहित है। तप के द्वादश भेदों के अनुष्ठाता है, प्राप्त किया । इतना ही नही किन्तु उम वन में रहने वाले मोह रूपी अंधकार को दूर करने के लिए मूर्य समान है। अन्य तपोधन साधुनों ने भी, जो अजान मूलक तपश्चरण क्षमारूपी लता के प्रारोहणार्थ वे गिरि के समान उन्नत द्वारा अपने शरीर को प्रत्यन्त कृश कर रहे थे। पार्श्वनाथ हैं। जिनका शरीर संयम और शील से विभूषित है, जो की शरण में प्राकर वास्तविक तपस्विता अंगीकार की कर्मरूपी कषाय हुनासन के लिए मेष है, कामदेव के ये तपस्वी उस समय के अच्छे विद्वान थे। पाश्र्वनाथ के उत्कृष्ट बाण को नष्ट करने वाले तथा मोक्षरूप महा जीवन की इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना का उल्लेख