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________________ २७२ अनेकान्त माना गया है। इसमें नाग युगल हैं; किन्तु तापसी नहीं माना और उसने प्रवज्या और उपसर्ग लकड़ी फाड़ ही डाली, तब उसमें से अधजला हुमा नागएक समय कुमार गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे । वहां नागिनी का जोड़ा निकला। कुमार ने उन्हें मरणोन्मुख कुछ तपस्वी अग्नि जला कर तप कर रहे थे। उनका यह जान कर उनके कान में नमस्कार मंत्र दिया। और तप 'पंचाग्नि तप' कहलाता था। यह शरीर शोषक होने दुखी होकर वे वहां से वापिस चले गये। इस घटना से के साथ-साथ जीव हिंसा का भी कारण है। इसी से इसे कुमार के दयालु सुकुमार हृदय पर बड़ी चोट लगी और मिथ्या तप कहा जाता है, वास्तव में पंचाग्नितप काम, जीवन की प्रनित्यता के साथ देह-भोगों की अनित्यता से क्रोध, मद, माया और लोभ रूप पञ्च अग्नियों का सहन उनका चित्त अत्यन्त उदास हो गया और वे विचारने करने वाला, अथवा इन पर विजय प्राप्त करने वाला लगे किसाधक हो पञ्चााग्नतप साधक कहला सकता हर । परन्तु सामान परुप जन जैसे, हम खोए ये दिन ऐस । वहां प्रात्म-साधनाका लेशभी नही है केवल हिंसा और शरीर संयम विन काल गमायो. कळ लेखे में नहिं ग्रायो। शोषण क्रिया का ही अवलम्बन है । प्रस्तु, कुमार उनके ममतावश तप नहि लीनों, यह कारज जोग न कीनो। पास पहुंच कर बोले-इन लक्कड़ों को जला कर क्यो अब खाली ढील न कीज, चारित चिन्तामणि लीजै ।। जीव हिंसा कर रहे हो। कुमार की यह बात सुन कर यह सोच कर तीस वर्ष की भरी जवानी में राजसुख तापसी बहुत क्रोधित हुए और झल्लाए तथा कहने लगे का परित्याग कर वे दीक्षित हो गए। तपश्चरण में अनु'यदि तुम्हे इतना ज्ञान है तो तुम ही हार हर ब्रह्मा हुए। रक्त हो प्रात्म-साधना में तत्पर हो गये। उनका तपस्वी इनमें जीव कहां है ? तब कुमार ने उन लक्कड़ो की मोर जीवन बड़ा ही कठोर और उग्र था, वे कष्ट सहिष्णु, , इशारा किया और तापसी कुल्हाड़ी उठा कर उस लकड़ी पौर क्षमाशील तथा परिषह विजयी थी। उनकी आत्मको फाड़ने लगा। तब कुमार ने कहा इसे मत फाड़ो साधना कठोर थी वे वर्षा, गीत और ग्रीष्म की तपन की परवाह नहीं करते थे। वे सम्यभावी, वर्य और गुणों (१) वीरं अग्ढिनेमि, पास मल्लि च वासुपुज्जं च । एए मोत्तण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥२४३ २. भो तपसी यह काठ न चीर, यामें युगल नाग हैं वीर । रायकुलेमु वि जाया विसुद्धवंसेसु खत्तिय कुलेसु । सुन कठोर बोलो रिस पान, भो बालक तुम ऐसो जान । न च इच्छियाभिसेया कुमारवाममि पब्वइया ।। हरि हर ब्रह्मा तुमही भए, सकल चराचर ज्ञाता ठए। प्रा० नि० २४४।। मन करत उद्धत अविचार, चीरो काठ न लाई वार १५५ xxxx ततत्रिण खण्ड भए जुगजीव, जैनी बिन सब प्रदय अतीव । गामायाग विसया निसेविया ते कुमार वज्जेहिं । यही भाव महाकवि पुष्पदन्त की निम्न पंक्तियों में गामागराइयाएमु य केसि (म) विहागे भवे कस्स ।। अंकित है :२५५ भो भो तापम तरु म-हण म-हणु, टाका-ग्रामाचाग नाम विषया उच्यन्ते ते विपया निसे- एत्थच्छद कोडरि णाय-मिहुणु । बिता-प्रासेविता: कुमारवर्ग.-कुमार भाव एव ता भणइ तवसि कि तुझणाणु, ये प्रवज्या गहीतवन्तः तान् मुक्त्वा शेप. सर्वस्तीर्थ कि तुह हरिहर चउवयणु भाणु । कृद्भिः। किमुक्त भवति ? वासुपूज्य-मल्लिस्वामि इय भणि वि तेण तहिं दिगण घाउ, पार्श्वनाथ-भगवदरिष्टनेमि व्यतिरिक्तः सर्वेस्तीर्थ संक्षिण्णउ सह गाइणिइ जाउ। कृद्भिगसेविता विषयाः न तु वासुपूज्य प्रभृतिभि , जिरण वयणे विहि मि सहि जाय, तेषां कुमार भाव एव प्रतग्रहणाभ्युपगमात् । को पावइ धम्महु तणिय छाय । -टीकाकार मलयगिरि । -महापुराण ६१-२१
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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