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________________ २३६ अनेकान्त ननी भोगों से निविण्ण हुए तथा संयम एवं स्वाधीनता-पय के के अतिरिक्त जिनमें स्पष्टत: ऋषभ वृषभ, गौर तथा पथिक बनकर प्रवजित हए, प्रतः वशी, यति एवं व्रात्य अनड्वान का उल्लेख है, ऋक्, यज, साम, तीनों ही नामों से प्रसिद्ध हुए। संहितामों के प्रायः समस्त छन्द, जिनमे उपर्युक्त संज्ञामो इन्होंने अपनी उग्र तपस्या, श्रम सहिष्णुता और सम. और विशेषणों से स्तुति की गई है, भगवान् वृषभ की वर्तना द्वारा अपने समस्त दोपों को भस्मसात् किया। अतः मोर ही संकेत करते हैं। यह रुद्र, श्रमण आदि संज्ञामों से विख्यात हुए। इन्होंने अथर्ववेद के इस तथ्य को व्यक्त करते हुए कहा गया अज्ञान तमस् का विनाश करके अपने अन्तस् में सम्पूर्ण है कि जिस प्रकार प्रापः (जल), वातः [वायु] और ज्ञान-सूर्य को उदित किया, भव्य जीवों को धार्मिक प्रति- औषधि [वनस्पति]-तीनों एक ही भवन [पृथ्वी के बोध दिया और अन्त में देह त्यागकर सिद्ध लोक में अक्षय पाश्रित हैं, उसी प्रकार ऋक्, यजु, साम-तीनों प्रकार पद की प्राप्ति की। के छन्दों की कविजन "पुरस्यं दर्शतं विश्व चक्षणन् [बहु जैन परम्परा में जो वृत्त गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और रूव दिखाई देने वाले एक विश्वेदस् सहस्राक्ष, सर्वज्ञ को निर्वाण के नाम से प्रसिद्ध है और जिन्हें लोक-कल्याणी लक्ष्य रखकर ही वियेतिरे [व्याख्या करते हैं१] । होने से कल्याणक की संज्ञा दी गई है। वैदिक परम्परा में ऋग्वेद के निम्नांकित दो मंत्रों में हम भगवान् वृषभवही [१] हिरण्य गर्भ [२] जात-वेदम्, अग्नि, विश्वकर्मा, देव के तथोक्त रूपों एवं वृत्तों का वैसा ही इतिहासप्रजापति, [३] रुद्र पुरुष, व्रात्य, [४] सूर्य, प्रादित्य, क्रमानुसारी वर्णन देख सकते हैं, जैसा कि जैन परम्परा अर्क, रवि, विवस्वत, ज्येष्ठ, ब्रह्मा, वाक्पति, ब्रह्मणस्पति, विधान करती है वे मन्त्र निम्न प्रकार हे२। बहस्पति, [५] निगढ परमपद, परमेष्ठी पद, साध्यपद "दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्नि द्वितीयं परिजातवेदाः । प्रादि संज्ञामों से प्रसिद्ध है। तृतीयमप्सु नृपणा अजस्त्रभिधान एवं जाते स्वाधीः ।" मध्य एशिया, लघु एशिया, उत्तर पूर्वीय अफरीका के । ___ अर्थात् अग्नि प्रजापति पहले देव-लोक में प्रकट हुए, समेर, वैवीलोनिया, सीरिया, यूनान, अरब, ईरान, मिश्र, दितीय बार द द्वितीय बार हमारे बीच जन्मतः ज्ञान-सम्पन्न होकर प्रकट यथोपिया आदि संसार के समस्त प्राचीन देशों में जहाँ हुए। तीसरा इनका वह स्वाधीन एवं आत्मवान् रूप है, भी पणि अथवा फणि और पुरु लोगों के विस्तार के साथ जब इन्होंने भव-सागर मे रहते हुए निर्मल वृत्ति से समस्त भारत से भगवान् वपम की श्रुतियाँ, सूक्तियाँ और कमेंन्धन को जला दिया। तपापाख्यान पहुचे है१ वहां भगवान् अशुर [असुर], प्रोसो- "विद्या ते अग्रे त्रेधा त्रयाणि विद्या ते धाम विभूता पुरून्ना। रिक्ष असुरशि अहरमज्द [ममुरमहत्], ईस्टर [ईषतर] विद्या ते नाम परम गुहा यद्विद्मा तमुत्सं यत आजगंथ३ ॥" जहोव यह्वमहान्] गौड [गौर गोड] अल्ला [ईड्य अर्थात् हे अग्रनेता, हम तेरे इन तीन प्रकार के तीन रूपों स्तुत्य], ए० एम० [अहमस्ति] सूर्यस् [सूर्य] रवि, मिथ को जानते है। इनके अतिरिक्त तेरे पूर्व के बहत प्रकार मित्र] वरुण प्रादि अनेक लोक-प्रसिद्ध नामों और से धारण किये हुए रूपों को भी हम जानते हैं। इनके विशेषणों द्वारा पाराध्य देव ग्रहण कर लिये गये । यही अतिरिक्त तेरा जो निगूढ परमधाम है, उसको भी हम कारण है कि इन देशो के प्राचीन प्राराध्यदेव सम्बन्धी जो जानते है। और उच्च-मार्ग को भी हम जानते है जिसमे रहस्यपूर्ण पाख्यान परम्परागत सुरक्षित है, उनमें उपर्युक्त तू हमें प्राप्त होता है। चार वृत्त "१. In carnation २. Suffering उक्त स्मृति से स्पष्टत. प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक and crucification ३. ressurrection काल में भगवान् वृपभ के पूर्व जातक लोक में पर्याप्त और ४. Ascent to Heaves के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। (क्रमशः) प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार इन सूक्तों और मन्त्रों १. अथर्ववेद १६, १.। १. Dr. H.R. Hall. The Ancient History २. ऋग्वेद १०, ४५, १ । of Eest १०४, ७७,१५८, २०३, ३६७, ४०२ ३. वही, १०, ४५, २।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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