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________________ ३८ ईसाई तथा बौद्ध विश्व-सम्मेलनों की श्री जन संघको प्रेरणा विवेकानन्द के द्वारा जून १८९६ का लंदन से लिखे रक्षण एवं प्रगति संभव है। श्री विनोवाभावे मादि महानुहए पत्र में श्री धर्मपालजी को खास प्रेरणा थी कि भावों का कथन भी उस बात की ही प्रतीति कराते हैं 'अमेरिका में बौद्ध धर्म का अवश्य प्रचार करना चाहिए।' कि "विज्ञान और धर्म का समन्वय जरूरी है इसके बिना सचमुच यह बात उन दोनों धर्म प्रचारकों में कसा हार्दिक मानव समाज का अस्तित्व भी टिकना मुश्किल है।" मिलन था वह दिखाने के लिए पूरता है। सन् १८१८ में सन १९०२ में श्री धर्मपाल जी ने तीसरी बार श्री धर्मपाल जी ने केवल साम्प्रदायिक बौद्ध धर्म के प्रचार अमेरिका यात्रा की और वहां दो वर्ष ठहरे। भारत वापस की अपेक्षा प्रार्य धर्म का वास्तविक प्रचार करना इष्ट लौटते समय वे लन्दन में अराजकतावादी प्रिंस पीटर माना। श्री धर्मपाल जी ने १८९६ के अासपास में ६ महीने द्रोपोटनिक आदि समाजवादी विचारधारा वाले विचारकों तक लका के बौद्धों में मांस भक्षण का निपेध, जाति भेद के साथ खले दिल से वार्तालाप किया। हालैण्ड में उन्होंने की समाप्ति तथा विदेशी वेश भूपा के त्याग का विशिष्ट वहां के ही प्राइमरी स्कूलों का निरीक्षण किया। स्वीडेन प्रचार किया। इसी उद्देश्य के प्रचार के लिए उन्होंने जाकर वहां के ग्रह उद्योगों की जानकारी प्राप्त की। बंगाल से पेशावर तक की तीर्थ यात्रा भी की। हालैण्ड के एक स्कूल मे श्री धर्मपाल जी का महापुरुषोचित लन्दन की श्री मती मेरी एलिजाबेथ की श्री धर्मपाल स्वागत करने में पाया। क्योंकि कुछ दिन पूर्व ही वहां जी के प्रति अत्यन्त घनिष्ठ श्रद्धा बढ़ती जा रही थी के एक ज्योतिष शास्त्रीय ने भविष्य वाणी की थी कि इस क्योंकि श्री धर्मपाल जी के उपदेशानुसार मेरी एलिजावेथ स्कूल में "पूर्व का महान व्यक्ति प्राएगा।" ने साधना की थी। उस साधना के फलस्वरूप श्रीमती बेथ के कांगडा का एक तरुण सिक्ख सन् १९०४ में श्री स्वभाव का चिड़चिड़ापन दूर हया था। फलस्वरूप उसने धर्मपाल जी से मिलने के लिए खास काशी प्राया था। अपने जीवन के अन्त तक अर्थात् सन् १९३० तक करीब काशी कैण्ट स्टेशन से इक्का में सारनाथ की पोर जाते दस लाख रुपये श्री धर्मपाल जी को धर्म के प्रचार, स्कूल हए उस युवक को इक्कावान् ने कहा कि-'जिस साधु हास्पिटल, पुस्तकालय, प्रादि के लिए दिए थे। को मिलने के लिए आप सारनाथ जा रहे हैं उप्त साधु को सन् १९०१ में अनागारिक श्री धर्मपाल जी ने इस ओर के लोग पागल समझते हैं।' सारनाथ पहेचते ही अपनी माता श्रीमती मल्लिका हेवावितरण द्वारा प्राप्त तरुण ने देखा कि मारनाथ बिल्कुल उजाड़ स्थान है। उसे ६००) रुपयों से सारनाथ में एक जमीन का टुकड़ा देखते ही युवक के मन में बड़ी निराशा हुई। किन्तु खरीदा था । वर्मा और लंका से प्राप्त चन्दे के द्वारा इस अनागारिक श्री धर्मपाल जी के दर्शन होते ही वह सारी जमीन के ऊपर एक मकान बनाया गया। जिसमें छोटे निराशा दूर हो गई। युवक ने धर्मपाल जी के उद्देश्य में बच्चों को शिक्षा देना शुरू की। जिसके द्वारा बालकों उच्चता, संकल्प में शक्ति तथा उनकी आँखों में अन्तरतम के व्यक्तित्व का विकास हो। यह संस्था चलाने का पूरा की प्रवल प्राग का प्रत्यक्ष दर्शन किया। वह सिक्ख युवक खर्च श्रीमती फोस्टर ने दिया। उसीने श्री बौद्ध मदिर अप्रतिम पत्रकार सन्त निहालामह के नाम से प्राज ससार के निर्माणार्थ चन्दे में १५००) रुपया दिया। उसके बाद में प्रसिद्ध है। अतः यह अनुभव किया जा सकता है कि मेनमा के राजा श्री उदय प्रतापसिह ने भी २०००) रुपये किस लगन और निष्ठा से अकेले हाथ से श्री धर्मपाल जी दिये । उसमें अन्य भी सहायताए हुई थी। इस तरह ने भारत तथा विश्व में बौद्ध धर्म की सेवा की। सारनाथ में दस बीघा जमीन खरीदने में पायी। नवम्बर मन् १९०४ में अनागारिक श्री धर्मपाल जी विदेशों के विस्तृत परिभ्रमण तथा वहां की अनेक ने लंका महाबोधि सोसाइटी के अनुरोध से लंकावासियों में संस्थाओं के सूक्ष्म निरीक्षण के पश्चात् श्री धर्मपाल जी ने पुनर्जागरण के निमित्त विशेष अभियान किया । लंका द्वीप निर्णय किया कि पश्चिम के शिल्प. विज्ञान आदि को पूर्व के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक जिस मोटर गाड़ी में के अध्यात्म के साथ में समन्वय हो तब ही विश्व का वे घूमे थे उस मोटर गाडी में लिखा हुआ था कि-'गो
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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