________________
अनेकान्त
हो, सचमुच निश्चय सम्यक्त्व का पूर्ण अनुभव कर सकता जाकर यात्मा स्वयं भगवान् बन जाता है। और जन्य है। निश्चय सम्यक्त्व के भन्तिम उच्च स्तर का अनुभव मरण के चक्र से भी पूर्णतः मुक्त होकर देह, इन्द्रिय, बुद्धि, करने वाला साधक वास्तव में ब्रह्म रूप हो जाता है। मन से परे एकमात्र पूर्ण भगवत् स्वरूप में अनन्तकाल के देह, इन्द्रिय, बुद्धि, मन रूप सम्पूर्ण दृश्यमान् भाव जगत से लिए स्थित हो जाता है। प्रात्मस्वरूप की उस अन्तिम परे विशुद्ध भावातीत स्वरूप में स्थित हो जाता है। प्राप्ति को देख कर काल जैसा अति भयंकर शत्रु भी मात्मा के इस भावातीत अर्थात् ब्रह्मरूप भवस्था में पाकर अनन्तकाल के लिए निवृत्त हो जाता है। विशुद्ध प्रात्म के "सवी जीव करूं शासन रसी" की दिव्य भावना की स्वरूप की परछाई तक भी वह काल सह नही सकता। और आगे बढ़ता है । जहाँ क्रमश: विशुद्ध प्रात्म स्वरूप में फलतः आत्मा अपने निजी रूप में कालातीत स्थिति करता अनुभव द्वारा आगे बढ़ता साधक क्षपक श्रेणी प्रारम्भ है। जैसे प्रकारान्तर से अनन्तकाल की प्रात्मस्थिति भी करके अन्त मे तेरवे गुणस्थान तक पहुंच जाता है। जहाँ कह सकते है ।
-क्रमश.
शोध-कण महत्वपूर्ण दो मूर्ति-लेख
नेमचंद धन्नूसा जैन, न्यायतीर्थ
जुलाई १९६३ में मुझ वाझीम (जिला अकोला) के -स. १६६० वर्षे जाठ शु० १४ जनौ मूलसंघे ब० गणे दिगम्बर जैन मन्दिर के मूर्ति-यंत्रलेख लेने का मुअवसर भ० सुमतिकीति-भ० गुणकीति-भ० श्री वादीभूपण भ० मिला था। उसमें मुझे यह दो लेख मिले जिससे प० रामकीर्ति तत्पढें भ० श्री पद्मनन्दी उपदेशात् प्राचार्य श्री मेघराज के जीवन और काल पर कुछ प्रकाश मिलता है। श्रीभूपण शिष्य ब्र० श्री भीमा तत् शिष्य ब्र० श्री मेघ. पं० मेघराज के जसोघरगस मगठी तथा तीर्थवंदना और राज नन् शिष्यो ब्र० श्री केशव ब्र० सवजी एते श्रीरत्नपाश्वनाथ भवातर ये तीन ग्रन्थ उपलब्ध है। तथा उनका मय त्रिकाल चतुर्विशतिकां नित्य प्रणमति । स्वगुरु ब्रह्म श्री काल १६वीं सदी का पूर्वाध माना जाता है। स्थल का मेघराज पुण्यार्थ म्बकीय शिष्य ब्रह्म सवजीनेन कारापिता। निर्देश तो उन्होंने खुद ही पाश्वनाथ भवातर के अन्त में पहले लेख से स्पष्ट होता है कि वे हुमड समाज के दिया है। देखिए
भूण्ण थे । अतः उनकी मातृभापा गुजराती रही हो प्रार 'अनेक अतिशयो सभ गुणसागर, प्रतरिक्ष श्रीपूरी ईडर शाखा के गुरू ही इनके गुरू रहे हों तो शंका नही परमेश्वर । वांछित पास जिनेश्वरु, ब्रह्म शाति प्रमादे अत इनका जन्म गुजरात में माना तो वाधा नही माती। मेधा मणे, कर जोडनि वंदना कहा ।" इसमें जैसा विवाहोत्तर ये अतरिक्ष प्रभु का दर्शन करने इधर प्राय गुरु का नाम है वैमा अतरिक्ष श्रीपुर का भी नाम है।
होगे तो इधर ही रमे और साहित्य रचना की। उनम: । अत. यह रचना उन्होंने प्रत्यक्ष 'श्रीपुरी रहकर को
पत्नी का नाम 'राणी था। पं. मगल और मिघ ये उनके होगी। ऐसा मानना अनुचित नहीं होगा। क्योकि अत
दो पुत्र थे। स० १६१७ तक ये दोनों पुत्र विवाह बद्ध रिक्ष पाश्र्वनाथ से १० मील दर ही उनके जीवन मी हुए थ इसका अर्थ उस समय पडित मेधगज जी की प्रार मूर्तिलेख मिले है। देखो
४० से ४५ साल की होगी। अत. उनका जन्म मवन
१५७२ से ७५ (३० सं० १५१७-२०) तक हुआ होगा। १. पि० पद्मावती देवी (चि० पार्श्वनाथ मन्दिर)
दूसरे लेख से यह विदित होता है कि जीवन के उत्तग सं० १६१७ माघ वद्य ३ र (वौ) श्रीमूलमंधे ब्र० श्री.
उन्होंने ब्रह्मचर्य लिया था और उनका वह मंगलमय शांतिदास त०० हस तब. राजपालोपदेशात् हमड
लापदात् हुमड जीवन मं० १६८० के पहले ही खत्म हो गया था। उनके झातीय पं० मेघा भार्या) राणी सु०० मंगल मा०
पवित्र स्मति में सं० १६८० में यह चौबीसी की स्थापना सीता द्वि० सु. सिंध भा० रमा ।
की गई थी। इससे १०-१५ साल भी पहले उनकी मृत्यु २.पि.मि. चौबीसी (ममीझरो) पाव मन्दिर) हुई हो तो भी उनकी मायु सौ साल से कम नहीं होगी