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'जयपुर' की संस्कृत साहित्य को देन-"श्री पुण्डरीक विठ्ठल बाह्मण"
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"After Khandesh was annexed by Akabar लाया कि यहां सभी विषयों के विद्वान् विद्यमान हैं परन्तु about 1699 A.D., He went to his Court at मगीत शास्त्री नही है। इस पर पुण्डरीक (?) ने 'रागDelhi & there wrote 'Raguararan at the
मजरी' का निर्माण किया। देखिएinstance of cbiet Madhavas:n ha." (Pared65
"सभा--ब्रह्माविष्णुमहेश्वरः परिचिता संपूर्णविद्या सभा, Historv). यहां से ये 'अामेर' ही गये थे। मिर्जागजा मानसिह
श्रीमन्माधवसिहराजरुचिरा शृगारहारा सभा ॥ ने इनकी संगीतकला में प्रवीणता देखकर बादशाह से इन्हे
अगणितगणकविचिकित्सक-वेदान्त-न्याय-शब्दशास्त्रज्ञाः । अपने दरबार के लिए माग लिया था और इस प्रकार ये
दृश्यन्ते बह्व. संगीती नात्र दृश्यतेप्येकः ॥ माधवसिंह के प्राधीन भी रहे। यहाँ इन्होंने 'रागमाला' इत्युक्ने माधवसिंह विट्ठलेन (?) द्विजन्मना । नामक पुस्तक की रचन" की, जिमकी प्रति तंजोर पुस्त
नत्वा गणेश्वरं देव रच्यते रागमजगै॥" कालय १६-७२४२, ७२४५ तथा अनूप संस्कृत पुस्तकालय
यहाँ एक मन्देह उपस्थित होता है-'गगमजरी' का बीकानेर में क्रमाक ५७५ (मगीत) पर उपलब्ध है। यह
लेखक पुण्डरीक है या विट्ठल ? क्योंकि 'पुण्डरीक' का ही
माधवसिंह की सभा में होना माना गया है। परन्तु उपबम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त 'राग
युक्त पद्यो में लेखक का नाम 'विट्रल' मिलता है। इसकी मजरी' नामक रचना की पाण्डुलिपि देखने से यह विषय
पुष्टि ग्रन्थान्त की पुष्पिका द्वारा भी होती है। सष्ट हो जाता है। यह भी माधवासह (प्रथम) के आश्रय
दूसरा पद्य हैमें लिखी गई रचना है। इसके प्रारम्भ मे लेखक अपने
"दमकजननी निजसुत 'विट्ठल कृत रागमञ्जरी केयम् । आश्रयदाता का उल्लेख करता है
सन्दरनिविचित्र-वागदेवी श्रवणमडना भवतु ॥२॥ "श्रीमत्कच्छपवंशदीपकमहाराजाधिराजेश्वरः,
संगीतार्णवमन्दिग्प्रतिदिनं साहित्यपद्माकरतेजः पुञ्जमहाप्रतापनिकरो भानु. क्षितौ राजते ।
प्रोदभूनप्रबलप्रबोधजनको भासां निधिः साम्प्रतम् । तस्यासीद् भगवानदासतनयो वीराधिवीरेश्वर.,
विद्यावादविनोदिनामतितराम् अग्रेमर: केसरी, क्षोणीमडलमडनो विजयते भूमंडलाखण्टल ॥"
सोयं माधव मह राजतिलको जीयाच्चिर भूतले ॥३॥" इसके पश्चात् कुछ पद्यों में इस वश का वर्णन कर अपने प्राथयदाता का उल्लेख करते है--
इसमे स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह रचना पुत्र "तस्य द्वौ तनयो सुशीलविनयो शूरो महाधामिको, 'पृण्डरीक' की नहीं है अपितु पिता 'विट्ठल' की है, परन्तु जातौ पक्तिरथात्मजौ त्वकबरक्षोणीपतेः द्वौ भुजौ।
ममाप्ति पर उल्लिग्विन पक्ति पुनः मदेहान्वित करती सिहो माधवमानपूर्वपदको सग्रामदक्षानुभो, तेगत्यागसह सहस्रकलितो श्रीसर्वभूमिश्वरौ।।"
___ "इति श्री कर्णाटकजातीय पुण्डरीक विठ्ठल कृत 'राग"अकबरनुपधर्मा राज्यतश्चातिधर्मा,
मञ्जरी' समाप्लेति शुभ भवतु ।" धरणिगगनमध्ये जगमो मध्य मेकः ।
विचार विनिमय के उपरन्त यही कहा जा मकना हे सकलनृपतिताराश्चन्द्रसूर्याविभी द्वौ,
कि यह रचना "विठ्ठल' की है। यह मभव है कि पुत्र के जगति जयनशीलौ माधवामानामहो ॥३॥ साथ पिता भी राज्य मम्मानित हो। ग्रन्थान्त की पवित तत्र माधमसिहोऽयं राजा परम वैष्णवः ।
को लिपिकार को भ्रान्ति भी मान मकते है परन्तु अथ मे सर्वदा विष्णुभक्त्यर्थ नाद्यारम्भं करोति हि ॥४॥" उल्लिखित दोनों स्थानो के उपर्युक्त संकेतों को अशुद्ध
इस प्रकार वश परिचय प्रस्तुत करते हा पुण्डरीक नहीं मान सकते। इस विषय मे अन्यान्य प्रमाण भी कवि ने 'रागमञ्जरी' का उपक्रम वर्णित किया है। उमने शोध्य है। लिखा है कि एक दिन महाराज माधवसिंह सभा मे बैठे श्री पुण्डरीक विट्ठल की अन्यान्य मंगीतशास्त्री रचथे। राजा ने अपनी सभा की प्रशंसा की। सभा ने बत- नाएं भी उपलब्ध होती हैं, परन्तु उसके प्रादि या अन्त में