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________________ २१ . अनकान्त . १-हलाधजीवि (५६) :-हल चलाकर अजी- -कौलिक (१२१) जुलाहा या बुनकर विका करने वाले। कौलिक के एक प्रौजार नलक का भी उल्लेख है। २-गोप (२९१):-कृषि करने वाले। यह धागों को सुलझाने का मौजार था जो एक पोर गोप की पत्नी गोपी या गोपिका कहलाती थी। पत्नी पतला तथा दूसरी ओर मोटा जंघामों के प्राकार का पति के कृषि कार्य में भी हाथ बटाती थी। सोमदेव ने होता था४३ । धान के खेतों को जाती हुई गोपिकामों का उल्लेख किया -प्वजिन् या ध्वज (४३०) है। (शालिवप्रेषयान्त्यः गोपिकाः, १६)। गोप और श्रुतदेव ने इसका अर्थ तेली किया है।४। मनुस्मृति हलायुधजीवि में सम्भवतः यह अन्तर था कि गोप वे कह- तथा याज्ञवल्क्य स्मति में सोम या सुरा बेचनेवाले के प्रथ लाते थे जिनकी अपनी स्वयं की खेती होती थी तथा में ध्वज या ध्वजिन शब्द का प्रयोग हुआ है।५। हलायुधजीवि उनको कहते थे जो अपने हल ले जाकर ध्वज कल मैं उत्पन्न लोगों को निम्नकोटि का माना दूसरों के खेत जोतकर अपनी प्राजीविका चलाते थे। जाता था। राज्य संचालन प्रादि कार्यों के वे अयोग्य ३-प्रजपाल (५६):-गाय पालने वाले । माने जाते थे। पामरोदार नामक राजा ध्वजकुल में पैदा ४-गोपाल (३४०, उत्त०)-वाला। हुभा था. इसलिए उसे राज्य करने के प्रयोग्य माना ग्वालो की बस्ती को गोष्ठ कहते थे३९ । सम्भवतया गया४६ । ब्रजपाल उन्हें कहते थे जिनके पास गायो तथा अन्य पशुओं १०-निपाजीव (३९०): कुंभकार । का पूरा बज (बड़ा भारी समुदाय) होता था तथा गोपाल निपाजीव निश्चल प्रासन पर बैठकर चक्र घुमाता वे कहलाते थे जो अपने तथा दूसरों के पशु चराते थे। तथा उस पर घड़े बनाता था। यशरितलक में एक मन्त्री ५-पोष (१३१, उत्त०)-गडरिया । राजा से कहता है कि हे राजन, जिस प्रकार निपाजीव बकरियां तथा भेड़ें पालने वाले को गोष कहते घड़ा बनाने के लिए निश्चल प्रासन पर बैठकर चक्र थे४०। घुमाता है उसी तरह भाप भी अपने प्रासन (सिंहासन ६-तक्षक (२७१)।४१ कारीगर या राजमिस्त्री। या शासन) को स्थिर करने दिक्पालपुर रूपी घड़े बनाने ७-मालाकार (३६३) माली; के लिए अर्थात् चारों दिशाओं में राज्य करने के लिए चक्र मालाकार या माली की कला का सोमदेव ने एक घुमायो (सेना भेजो)४७ ।। सुन्दर चित्र खींचा है। मंत्री राजा से कहता है कि राजन, ११-रजक (२५४) : घोबी अर्थात कपड़े धोने वाला। मालाकार की तरह कंटकितों को बाहर रोककर या लगा रजक की स्त्री रजकी कहकाती थी। सोमदेव ने कर, घनों को विरले करके, उखाड़े गये को पुनः रोपकर जरा (बुढ़ापे) को रजकी की उपका दी है, जिस तरह पुष्पित हुए से फूल चुनकर, छोटों को बड़ा कर, ऊँचों को रजकी गन्दे कपड़ों को साफ कर देती है, उसी तरह जरा झुकाकर, स्थूलो को कृश करके तथा अत्यन्त उच्छखल भी काले केशों को मफेद कर देती है४८ । या ऊबड़-खाबड़ को गिराकर पृथ्वी का पालन करें४२ । ४३. कोलिकनलकाकारे ते जंधे साप्रत जाते, पृ० १२६ ३६. गोष्ठीनमनुसृतः, पृ० ३४० उत्त. ४४. ध्वजकुलजातः तिलंतुदकुलोत्पन्नः, पृ० ४३० ४०. तं गोधमेवमभ्यधात्, पृ० १३१, उत्त० ४५. मुरापाने मुराध्वजः, मनुस्मृति ४१८५, याज्ञवल्क स्मृति १२१४१ ४१. कार्य किमत्र सदनादिषु तक्षकाद्यैः, पु० २७१ ४६. ध्वजकुलजातस्तातः, पृ० ४३० ४२. वृक्षान्कण्टकिनो बहिनियमयन विश्लेषयन्संहिता- ४७. निपाजीव इव स्वामिस्थिरीकृतनिजासन :। चक्र नुत्खातप्रतिरोपयन्कुसुमितांश्चिनवंल्लघून्वर्घयन् । भ्रमय दिक्पालपुरभाजनसिद्धये । पृ० ३६० उच्चान्संनमयन्पश्च कृशयन्नत्युच्छितान्पातयन् । ४८. कृष्णच्छवि. साद्य शिरोरुहश्रीरारजक्या क्रियतेऽव मालाकार इव प्रयोगनिपुणो राजन्महीं पालय । पृ० ३६३ दाता। प०२५-४
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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