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अनेकान्त
बोष प्राभृत में आपकी एक विशेषता विशेष रूप से गए हैं तथा जो विशुद्ध ध्यान और ज्ञान से युक्त है वह व्यंजित हुई है जो पूर्व और पश्चात् के प्राचार्यों में सिवायतन है। अपवाद रूप ही कहीं निखर पाई होगी। मापने जड़ इसी तरह साधारणतया चैत्यगृह शब्द मन्दिरों और शब्दों को प्रर्थ ही नहीं दिया वह प्रात्मादी जिसके बिना वृक्षों के लिए प्रयुक्त होते हैं लेकिन कुन्दकुन्द ने उस पंच१ अस्तित्व शून्य थे । आप चाहते तो अपने अर्थों के लिए महावतों से पवित्र और ज्ञानमय प्रात्मा को चैत्यगृह कहा नए शब्द गढ़ लेते लेकिन आपने उन्हीं शब्दों को प्राध्या- है जो स्वयं की और पराई चेतना को वोधिलाभ से भावित त्मिक अर्थ दिया जिन्हें पहले कई तरह के अर्थ दिए जा करता है । तथा जोर स्वयं के बंध-मोक्ष. सुख दुःख का चुके थे। हो सकता है उसमें उनका व्यावहारिक कौशल सर्जक स्वयं ही है ऐसी प्रात्मा जो छक्काय के लिए हितकर रहा हो कि शब्दंग्राही लोग शब्दो को तत्त्वरूप देखकर है उसे चैत्यगृह कहा है। भड़के वहीं या फिर उनका दृष्टिकोण ही अन्तर्मुख रहा
साधारणतया जिन प्रतिमा शब्द मन्दिरों में होने हो कि उनके समक्ष जो कुछ भी पाता उसमें उन्हें वाली मूर्तियों के लिए व्यवहत होता है। पहले भी इसी अध्यात्म के ही दर्शन होते। इसी का यह परिणाम है कि अर्थ में होता था और आज भी। जैसे यह एक जैनधर्म उन्होंने जो भी पारिभाषिक या लोक प्रचलित शब्द का पारिभाषिक शब्द हो और इसका अन्यथा अथं करना सामने आए उन्हें अध्यात्मपरक अर्थ दिया । यह उनकी
अपराध में परिगणित होता है। जैनेतर प्राचीन ग्रन्यो मे अपनी सूझ थी। इनसे पूर्व पायतन, चैत्यगृह आदि शब्द ।
भी प्रतिमा शब्द जड़ मूतियों के लिए ही व्यवहार में जैन, बौद्ध व वैदिक साहित्य में उन्हीं बाह्य अथों में प्रयुक्त लाया गया। लेकिन कन्दकन्द ने जिन प्रतिमा उसे कहा होते थे।
जो शुद्ध ३ ज्ञान, दर्शन और चारित्र युक्त, निर्ग्रन्थ वीतराग, जहाँ मायतन शब्द का प्रचलित अर्थ मकान या भाव जिन हैं। स्थान है वहाँ मापने उस संयमी आत्मा१ को प्रायतन
संयत प्रतिमा-उन मुनियों को बताया जो शुद्ध बताया जो प्रवृज्या गुण से समृद्ध, ज्ञान गुण से सम्पन्न
चारित्रमय हैं तथा शुद्ध सम्यक्त्व को जानते और प्रात्मगत मन, वचन व काय तथा इन्द्रियों के विपयो के अपराधीन
करते है। हैं। अर्थात् वशवर्ती नहीं हैं। तथा उस संयत रूप को भी प्रायतदा र सी व्युन्सर्ग प्रतिमा सिद्धों को कहा है। जो निरुपम हैं। लाभ आदि से अपराजित है, व पंच महाव्रतधारी महर्षि अचल है। मक्षुभित है, जंगम रूप से निर्मापित है तथा
सिद्धायतन की नई व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया
१. बुद्ध जं बोहंतो, अप्पाणं चेइयाण अण्णं च । -जिस मुनि वृषभ के समग्र३ पदार्थ सदर्थ सिद्ध हो
पंच महन्वय सुद्धं, णाणमयं जाण चेदिहरं ।।
(बो० श्लो० ८) १. मण-वयण-काय दव्वा, आ सत्ता जस्स इंदिया विसया। २. चेइय बधं मोक्खं, दुःखं सुक्खं च अप्यय तस्स । प्रायदणं जिणमग्गे, णिद्दिळं सजयं रूवं ॥ इहरं जिण मग्गे, छक्काय हियंकरं भणियं ॥ (श्लो०५)
(बो० श्लो०६) २. मय राग दोस मोहो, कोहो लोहो य जस्स मायत्ता। ३. सपरा जंगमदेहा, दंसणणाणेण सुद्ध चरणाणं । पंच महव्वय धारा, प्रायदणं महरिसी भणियं ॥ निग्गंथ वीयराया, जिणमग्गे एरिसा पडिमा ।। (श्लो०६)
(बो० श्लो०१०) १. सिद्धं जस्स सदत्थं, विमुद्धा झाणस्स णाणजुत्तस्य। ४. जं चरदि सुद्धचरणं, जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । सिद्धायदणं सिद्ध, मुणिवर वसहस्स मुणिदत्यं ॥ सा होइ बंदणीया, निग्गंथा संभा पडिमा ॥ (बोध श्लो. ७)
(बो० श्लो० ११)