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सिद्ध स्थान में स्थित हैं१ । दर्शन शब्द की बड़ी विचित्र परिभाषा की है । यों दर्शन शब्द के अनगिन अर्थ किए जा चुके हैं। उनके कई आत्मपरक अर्थ भी है लेकिन वहाँ भी आत्मा के एक
विशेष को दर्शन कहा गया है। पर कुन्दकुन्दाचार्य ने तो समूचे श्रात्मा को ही दर्शन की संज्ञा दे दी। जो श्रात्मा सम्यकत्व,२ संयम और सुधर्म रूप मोक्षमार्ग को दिखाता है उस ज्ञानमय निर्ग्रन्थ को दर्शन कहा गया है ।
शुद्ध संयम और ज्ञान-मय बीतराग की३ मुद्रा को जिन बिम्ब कहा गया है जो कर्म क्षय की हेतुभूत शिक्षाएँ देते हैं । जो तप और व्रतों के गुणों से शुद्ध हैं शुद्ध४ सम्यक्त्व को जानने वाले व ग्रात्मगत करने वाले हैं तथा शिक्षा दीक्षा देने वाले हैं उनकी मुद्रा को जिन मुद्रा कहा गया है । इसी तरह५ दृढ़ संयम मुद्रा, इन्द्रिय मुद्रा, कषायमुद्रा आदि नाना मुद्राओंों को जिनमुद्रा कहा गया है। तथा अर्थ (प्रयोजन) धर्म और काम (इप्सित ) व ज्ञान को देने वाले को गुरु और उसी के व्रत, सम्यक्त्व
बोध प्राभूत के संदर्भ में प्राचार्य कुन्दकुन्द
१. निरुवममचलमखोहा, निम्मिविया जंगमेण रूवेण । सिद्धट्ठणम्मि ठिया, वोसरपडिमा धुवा सिद्धा || ( बो० श्लो० १३ ) संजमं सुधम्मं च । दंसणं भणियं ॥
( बो० श्लो० १४ )
२. दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्त निग्गंथं णाणमयं जिणमगे
३. जिनबिम्बं णाणमयं संजम सुद्धं सुवीयरायं च । जं देइ दिवख, सिक्वा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ॥ ( बो० श्लो० १९ ) ४. तव वय-गुणेहि सुद्धो, जाणदि पिच्छेइ सुद्ध सम्मत्तं । अरहंत मुद्द एसा दायारी दिक्ख- सिक्खा य ॥ ( बो० श्लो० १७ ) कसायदढमुद्दा । एरिसा भणिया ॥
( बो० श्लो० १८ ) ६. सो देवो जो प्रत्थं, धम्मं कामं सुदेश णाणं च । सो देइ जस्स श्रत्थि, अत्थो धम्मो य पवज्जा ॥ (बो० श्लो० २४)
५. दढसंजम मुद्दाए, इंदियमुद्दा, मुद्दा इह पारणाए जिणमुक्ष
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से विशुद्ध, पंच इन्द्रियों में संयत व निरपेक्ष रूप को तीर्थ १ कहा गया है। उस तीर्थ में स्नान करने का अर्थ किया है उनसे दीक्षाएँ और शिक्षाएँ लेना ।
प्रव्रज्या का अर्थ यों कोई नया नहीं है लेकिन एक ही गाथा में जो प्रव्रज्या के सर्वांश का स्पर्श किया है वह अवश्य ही विलक्षण है। तथा कई जो प्रव्रज्या का अर्थ बाह्यलिङ्ग ( चिन्ह - वेशभूषा ) करते हैं उनके लिए नया भी है । उन्होंने प्रव्रज्या की परिभाषा करते हुए कहा है। जो शत्रु-मित्र, प्रशंसा-निन्दा, २ लब्धि - श्रलब्धि का तृण और स्वर्ण में समभाव हैं । उन स्वभावों का नाम ही प्रव्रज्या है । इस बोध प्राभृत ( या कर्ता ने जिसका नाम 'छक्का सुहंकर' रखा है) में ग्यारह तत्त्वों का वर्णन है । उनमें से ज्ञान, अर्हत् आदि एक दो ( जिनकी परिभाषाओं में विशेष अपूर्वता नहीं है) को छोड़कर शेष सभी की सार्थ व्याख्या उल्लिखित करने का प्रयास किया है। इतना अवश्य है कि एक ही तत्व की कुन्दकुन्द ने अनेक परिभाषाएं की हैं जिनका कुल मिलाकर आशय एक हैं उन सबको उल्लिखित न करके केवल एक-एक को ही यहाँ अवकाश मिल सका है ।
कुन्दकुन्द के इन ग्यारह विषयों के विवरण से ज्ञात होता है कि उस समय नाना प्रकार के प्रायतन माने जाते थे । नाना प्रकार के चैत्यों, मूर्तियों, मन्दिरों व बिम्बों की पूजा होती थी । नाना मुद्राओंों में साघु दिखाई देते थे । तथा देवतीर्थ व प्रव्रज्या के भी नाना रूप पाए जाते थे । यही कारण है कि इन लोक प्रचलित सभी विषयों का कुन्दकुन्द ने सच्चा स्वरूप दर्शाया । जो 'बोधपाहड़' के रूप में हमारे सामने है ।
बोध प्रामृत के आधार पर कुन्दकुन्द के प्रन्तर मानस का काफी स्पष्टता से विश्लेषण होता है। फिर भी अव शेष इतना रह जाता है कि जो उनके अन्यान्थ ग्रन्थों के अन्तः स्पर्शी अध्ययनों से ही गम्य किया जा सकता है । १. वय - सम्मत्त विशुद्धे, पंचिदियसंजदे णिरावेक्खे । हाएउ मुणी तित्थे, दिक्खा - सिक्खा - सुण्हाणेण || (बो० श्लो० २६) २. सत्तूमित्ते व समा पसंसर्गिदाग्रलद्विलद्धिसमा । तणकणए समभावा, पव्वज्जा एरिसा भणिया || ( बो० श्लो० ४७ )