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जीव: का अस्तित्व जिज्ञासा और समाधान
मुनि श्री नथमल
बालचंद जी नाहटा को मैं लम्बी अवधि से जानता पर्याय माना गया है और जीव में संकोच-विस्तार होने से हूँ। पुनर्भवी मात्मा में उन्हें विश्वास नहीं है। फिर भी सौम्य स्थौल्य स्पष्ट है, तथा 'प्रात्म-प्रवाद' पूर्व में जीव इस विषय की खोज में वे अपना समय लगाते हैं। प्राचार्य का नाम 'पुद्गल' भी दिया है। जैसा कि उक्त पूर्व का श्री तुलसी वि. २०२० का चातुर्मास जब लाडणू में विता वर्णन करते हुए 'धवला' सिद्धान्त टीका के प्रथम खण्ड में रहे थे, तब वे वहाँ आए। उन्होंने मुझे भनेकान्त (जून 'उक्तं च' रूप से जो दो गाथाएं दी हैं उनके निम्न अंश से सन् १९४२) का एक पत्र दिया और कहा इस प्रश्नावली तथा वहीं 'पोग्गल' शब्द के प्राकृत में ही दिए हुए निम्न पर आप अपना अभिमत लिखे। मैंने उसे पढ़ा और कहा अर्थ से प्रकट हैकि अभी मैं उत्तराध्ययन के सम्पादन कार्य मे बहुत व्यस्त जीवो कत्ताय वत्ताय पाणी भोत्ताय पोग्गलो।" हैं, इसलिए इस पत्र को अपने पास रख लेता हूँ। समय "छब्विह संठाणं बह विह देहेहि पूरदिगलदित्ति पोग्गलो।" पर लिख सकंगा। लगभग १।। वर्ष के बाद उस पर मैं श्वेताम्बरों के भगवती सूत्र में भी जीव को पृद्गल अपना अभिमत लिख रहा हूँ।
नाम दिया है। कोशों में भी "देहे चात्मनि पुद्गलः" रूप प्रस्तुत प्रश्नावलि जुगल किशोर जी मुख्तार की है। से पुद्गल का आत्मा अर्थ भी दिया है। बौद्धों के यहाँ बे स्वतः तत्त्वविद् व्यक्ति हैं। उनके मन में कुछ प्रश्न तो आम तौर पर पुद्गल नाम का प्रयोग पाया जाता है। उठे हैं। उन्होंने जिज्ञासु भाव से प्रस्तुत किए है। २३ तब जीवों को पौद्गलिक क्यों न माना जाय ? वर्ष पुरानी प्रश्नावली पर लिखू, यह लगता कैसा ही है ५. जीव को 'परंज्योति' तथा 'ज्योतिस्वरूप' कहा गया पर एक व्यक्ति ने चाहा, तब मेरा कर्तव्य हो गया कि है और ध्यान द्वारा उसका अनुभव भी 'प्रकाशमय' बतउस पर कुछ लिखू । इस प्रश्नावलि मे दस प्रश्न हैं मोर लाया गया है-प्रन्तः करण के द्वारा वह प्रत्यक्ष भी होता वे परस्पर सम्बद्ध हैं । इसलिए मैं अविभक्त रूप से उनकी है। सब बाते भी उसके पौद्गलिक होने को सूचित करती समीक्षा करना चाहूँगा
हैं-उद्योत और प्रकाश पुद्गल का ही गुण माना गया १. चैतन्य गुण विशिष्ट सूक्ष्माति सूक्ष्म प्रखण्ड पुद्- है। ऐसी हालत में भी जीव को पोद्गलिक क्यो न माना गल पिण्ड (काय) को एदि 'जीव' कहा जाय तो इसमें जाय? क्या हानि है-युक्ति से कौन सी बाधा माती है ?
६. प्रमूर्ति का लक्षण पंचाध्यायी के "मूर्त स्यादि२. जीव यदि पौद्गलिक नहीं है तो उसमें सौम्य- न्द्रिय ग्राह्य तद्ग्राह्यममूर्तिमत्" (२-७) इस वाक्य के स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार, क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द अनुसार यदि यही माना जाय कि जो इन्द्रियगोचर न हो कैसे बन सकता है?
_वह प्रमूर्तिक, तो जीव के पौद्गलिक होते हुए भी उसके ३. जीव के अपौद्गलिक होने पर प्रात्मा में पदार्थों प्रमूर्तिक होने में कोई वाधा नहीं पाती। असख्य पुद्गलों का प्रतिबिम्बित होना-दर्पण तलवत् झलकना-भी के प्रचयरूप होकर भी कार्माणवर्गणा जैसे इन्द्रियगोचर कैसे बन सकता है? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल नहीं है और इसलिए प्रमूर्तिक है, ऐसा कहा जा सकता ही होता है-उसी में प्रतिबिम्ब ग्रहण की अथवा छाया है। इसमें क्या बाधा आती है ? यदि निराकार ही होना को अपने में अंकित करने की योग्यता पाई जाती है। प्रमूर्तिक का लक्षण हो तो उसे खरविषाणवत प्रवस्तु क्यों
४. तस्वार्थ सूत्रादि,में सोक्षम्य-स्थौल्य को पुद्गल की न समझा जाय?