SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव का अस्तित्व जिज्ञासा र समाधान ७. पुद्गल के यदि दो भेद किये जायें-एक चैतन्य- आपत्ति के योग्य हो सकता है? गुण विशिष्ट और दूसरा चैतन्य गुण रहित, चैतन्यगुण- १०. रागादिक को 'पौद्गलिक' बतलाया गया है विशिष्ट पुद्गलों को केवल 'वर्णवन्तः'-वह भी 'चक्षुर- (अन्ये तु रागाद्याः हेयाः पौद्गलिका प्रमी', (पंचा. गोचरवर्णवन्तः' माना जाय और दूसरों को 'स्पर्श रस २-४५७) और रागादिक जीव के प्रशुद्ध परिणाम हैगन्धवर्णवन्त:' माना जाय और उन्हीं में रूपादि की रसादि बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। यदि जीव पौगलिक के साथ व्याप्ति स्वीकार की जाय तो इसमें क्या हानि नहीं तो रागादिक पौगलिक कैसे सिद्ध हो सकेगे? है? ऐसा होने पर प्रथम भेदरूप जीवों को तत्त्वार्थ सार रागादिक का अस्तित्व क्या जीव से अलग सिद्ध किया जा के कथनानुसार (८-३२) 'ऊर्ध्व गौरव धर्माणः' और सकता है? इसके सिवाय प्रपौदगलिक जीवात्मा में कृष्ण द्वितीय भेदरूप पुद्गलों को 'अधो गौरव धर्माण.' कहना नीलादि लेश्याएँ भी कैसे बन सकती हैं ? भी तब निरापद हो सकता है। अन्यथा, अपोद्गलिक में चैतन्यगुणविशिष्ट सूक्ष्माति सूक्ष्म प्रखण्ड पुद्गल गौरव का होना नहीं बनता। गुरुता-लघुता यह पुद्गल पिण्ड (काय) को जीव मानने पर निष्पन्न क्या होगा। का ही परिणाम है। कुछ पुद्गल चैतन्य गुण विशिष्ट हैं और कुछ पुद्गल ८. यदि पुद्गल मात्र को स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण इन चैतन्यगुण रहित हैं-यह श्रेणि विभाग वैसे ही रहा, चार गुणों वाला माना जाय-उसी को मूर्तिक कहा जाय जैसे माना जाता है कि जीव चैतन्य गुण विशिष्ट है और और जीव में वर्ण गुण भी न मानकर उसे प्रमूर्तिक स्वी- पुद्गल चैतन्य गुण रहित हैं। सब पुद्गल चैतन्य-गुणकार किया जाय तो ऐसे अपोद्गलिक और अमूर्तिक विशिष्ट होते तो स्थिति में अन्तर पाता। कुछ पुद्गलों जीवात्मा का पौद्गलिक तथा मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध को चैतन्य गुण विशिष्ट मानने से नामान्तर मात्र हुमा, होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? इस प्रकार के अर्थान्तर कुछ भी नहीं। बन्ध का कोई भी दृष्टात उपलब्ध नहीं है। और इसलिए मल प्रश्न यह है कि चेतन और अचेतन के बीच एक ऐसा कथन (अनुमान) अनिदर्शन होने से (माप्तपरीक्षा भेद-रेखा अवश्य है। और वह वर्तमानिक सत्य है। प्रतीत की 'ज्ञानशक्त्यैव नि.शेषकार्योत्पत्तो प्रभुः किल । सदेश्वर और भविष्य का सत्य क्या है ? इति ख्यातेऽनुमानमानदर्शनम्' इस प्रापत्ति के अनुसार) १. क्या चेतन अचेतन से चेतन के रूप में विकसित अग्राह्य ठहरता है--सुवर्ण और पापाण के अनादि बध का 'हमा है या सदा चेतन ही रहा है ? जो दृष्टान्त दिया जाता है वह विषम दृष्टान्त है और एक २. क्या चेतन कभी अचेतन के रूप में परिवर्तित हो प्रकार से सुवर्ण-स्थानी जीव के पौद्गलिक होने को ही जाएगा या सदा चेतन ही रहेगा? . सूचित करता है-यदि ऐसा कहा जाय तो इस पर क्या ३. क्या पहले चेतन हो था और अचेतन उससे मापत्ति खड़ी होती है ? सृष्ट हुमा? ९, स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण में से कोई भी गुण जिसमें ४. क्या पहले अचेतन ही था और चेतन उससे हो उसे मूर्तिक मानने पर (स्पर्शा रसश्च गन्धश्च वर्णोऽमी सृष्ट हुआ? मूर्तिसंज्ञकाः' आदि पंचाध्यायी २-६) और जीव को ५. क्या चेतन और अचेतन दोनों स्वतन्त्र थे? वर्ण गुण विशिष्ट स्वीकार करने पर (जिसका कुछ अद्वैतवाद के अनुसार चेतन से अचेतन अस्तित्व में अभ्यास 'शुक्लध्यान' शब्द के प्रयोग से भी मिलता है) पाया है। चार्वाक और कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार प्रचेतन जीव भी मूर्तिक ठहरता है और तब मृतिक जीव का . से चेतन अस्तित्व में आया है। मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होने में कोई जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार दोनों का अस्तित्व स्वबाधा नहीं पाती। वह सजातीय-विजातीय-पुद्गलों का तन्त्र है। तीनों मत हमारे लिए प्रत्यक्ष नहीं हैं, इसलिए ही बन्ध ठहरता है यदि ऐसा कहा जाय तो वह क्यों कर इनके सम्बन्ध में सत्य क्या है ? नहीं बता सकते।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy