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अनेकान्त
मैं अपनी बात कहै-चेतन तत्त्व के विषय में मैंने विस्तार (देखें प्रश्नांक ४) प्रकाशमय अनुभव (देखें दर्शन-शास्त्र के जितने स्थल पड़े उनसे न तो मेरी यह प्रश्नांक ५) ऊर्ध्व गौरव धर्मता (देखें प्रश्नांक ७) राग प्रास्था बनी कि जीव है और न यह आस्था बनी कि जीव आदि (देखें प्रश्नांक १०) नहीं हो सकते । नहीं है। जो जीव का अस्तित्व स्वीकार रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है और जो उनका प्रस्त्वि नहीं स्वीकार मैं जहाँ तक समझ सका हैं कोई भी शरीरधारी रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है। वास्तविक सत्य वह जीव अपोद्गलिक नहीं है। जिन प्राचार्यों ने उनमें संकोचहोगा कि जब हम मानेंगे नहीं कि जीव है या नहीं है विस्तार, बन्धन प्रादि माने हैं। अपौद्गलिकता उसकी किन्तु यह जान लेंगे कि वह है या नहीं है ?
अन्तिम परिणति है, जो शरीर-मुक्ति से पहले कभी प्राप्त यदि आप कहें कि वास्तविक सत्य है, इसे क्या हम नहीं होती। और वह हमारी परीक्षानुभूति का विषय नहीं जानते हैं ? नही जानते हुए भी जब हम मानते हैं कि है। जहाँ तक हमारी प्रत्यक्षानुभूति का प्रश्न है जीव का वह है तो फिर इसी को वास्तविक सत्य क्यों न मान लें भूत और भविष्य दोनों प्रज्ञात हैं। वर्तमान जो ज्ञात है कि जीव है या नहीं है ? जो मेरे लिए रहस्य है उसे मैं उसे प्रश्नकर्ता चैतन्य गुण विशिष्ट पुद्गल कहना चाहते हैं मान रहा है, जान तो नहीं रहा है। यदि मैं उसे जान और मैं पुद्गल-युक्त चैतन्य कहना चाहता हैं। पदगल रहा होता तो वह मेरे लिए रहस्य ही नहीं होता। आज और चैतन्य ये दोनों दोनों में हैं। प्रश्नकर्ता को चैतन्य हम सबके सामने प्रतीत और भविष्य तथा बहलांश में को गौण और पुद्गल को मुख्य स्थान देना इष्ट है। इस वर्तमान भी इतनापूर्ण है कि उनके विषय में हम अपनी रेखा पर पहुंचते ही हमारी दूरी केवल गौणता और मान्यताएं ही स्थापित कर सकते हैं। तो मेरी मान्यता यह मुख्यता तक सीमित हो जाती है। जिन चैतन्य की प्रक्रिया है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौद्गलिक ही से ही शरीर दूसरे पुद्गलों का ग्रहण, स्वीकरण (प्रात्महै और न सर्वथा अपोद्गलिक ही है। यदि उसे सर्वथा सात् करण) और विसर्जन करता है और अपनी हर
सालिक मानें तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और प्रवृत्ति मे जिसकी अधीनता स्वीकार करता है, क्या उसे यदि उसे सर्वथा अपोद्गलिक मानें तो उसमें संकोच- गौण स्थान दिया जा सकता है ?
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