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________________ जाए तो उसे राजकीय कोष से भरना चाहिए२१। सुरक्षा करते हुए उसे गन्तव्य स्थान तक पहुँचाये । सार्थ सोमदेव ने पिण्ठा को पण्यपुटभेदिनी कहा है । टीका- वाह कुशल व्यापारी होने के साथ-साथ अच्छा पथ-प्रदर्शक कार ने इसका अर्थ वणिकों की कुंकुम, हिंगु वस्त्र प्रादि भी होता था। माज भी जहाँ वैज्ञानिक साधन नहीं पहुंच वस्तुओं को संग्रह करने का स्थान किया है२२ । यशस्ति- सके हैं, वहाँ सार्थवाह अपने कारवां वैसे ही चलाते हैं, लक के विवरण से ज्ञात होता है कि पेण्ठा स्थान व्यापार जैसे हजार वर्ष पहले । कुछ ही दिनों पहले शिकारपुर के के बहुत बड़े साधन थे और व्यापारिक समृद्धि में इनका साथ (सार्थ के लिए सिंधी शब्द) चीनी तुकिस्तान पहुंचने महत्वपूर्ण योगदान था। के लिए काराकोरम को पार करते थे। पाज दिन भी सार्यवाह: तिव्बत का व्यापार सार्थों द्वारा होता है२५। यशस्तिलक में सार्थवाह के लिए सार्थ (१६) सार्थ- प्राचीनकाल में कोई एक उत्साही व्यापारी सार्थ पार्थिव (२२५ उत्त०) तथा सार्थानीक (२९३ उत्त०) बनाकर व्यापार के लिए उठता था। उसके साथ में और शब्द पाये हैं। समान या सहयुक्त अर्थ (पूंजी) वाले भी लोग सम्मिलित हो जाते थे। इसके निश्चित नियम व्यापारी जो बाहरी मण्डियों से व्यापार करने के लिए थे। सार्थ का उठना व्यापारिक क्षेत्र की बड़ी घटना टांडा बांध कर चलते थे, सार्थ कहलाते थे। उनका नेता होती थी। धार्मिक यात्रा के लिए जिस प्रकार संघ निकज्येष्ठ व्यापारी सार्थवाह कहलाता था२३ । इसका निकट- लते थे और उनका नेता संघपति (संघवई, संघवी) तम मंगरेजी पर्याय कारवान लीडर है। हिन्दी का सार्थ होता था, वैसे ही व्यापारिक क्षेत्र में सार्थवाह की स्थिति शब्द संस्कृत के साथ से ही निकला है, किन्तु उसका वह थी। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि भारतीय प्राचीन अर्थ लुप्त हो गया है। प्राचीनकाल में यात्रा व्यापारिक जगत में जो सोने की खेती हुई उसके फले करना उतना निरापद नहीं था, जितना अब हो गया है। पुष्प चुनने वाले सार्थवाह थे। बुद्धि के धनी, सत्य में डाकूमों और जंगली जानवरों से घनघोर जंगल भरे पड़े निष्ठावान, साहस के भण्डार, व्यापारिक सूझ-बूझ में पगे, थे, इसलिए अकेले-दुकेले यात्रा करना कठिन था। मनुष्य उदार, दानी, धर्म और संस्कृति में रुचि रखने वाले, नई ने इस कठिनाई से पार पाने के लिए एक साथ यात्रा स्थिति का स्वागत करने वाले, देश-विदेश की जानकारी करने का निश्चय किया, और इस तरह किसी सुदूर भूत के कोप, यवन, शक, पल्लव, रोमक, ऋषिक, हण मादि में सार्थ की नींव पड़ी। बाद में तो यह दूर के व्यापार का विदेशियों के साथ कन्धा रगड़ने वाले, उनकी भाषा और एक साधन बन गया२४ । रीति-नीति के पारखी भारतीय सार्थवाह महोदधि के तट सार्थवाह का कर्तव्य होता था कि वह सार्थ की पर स्थित ताम्रलिपति से सीरिया की अन्ताखी नगरी तक यव द्वीप-कटाहद्वीप (जावा और केडा) से चोलमण्डल के २१. तथा च शुक्र:-प्राह्य नेवाधिकं शुल्कं चौरर्यच्चाहृतं सामुद्रिक पत्तनों और पश्चिम में यवन, बर्बर देशों तक भवेत् । पिण्ठायां भुभुजा देयं वणिजां तत स्वकोशतः के विशाल जल, थल पर छा गये थे२६ । वही, टीका यशस्तिलक में सुवर्णद्वीप और ताम्रलिप्ति के व्यापार २२. पण्यानि वणिम्जनानां कुंकुमहिंगुवस्त्रादीनि क्रयाण. का उल्लेख है। पचिनी खेटपट्टन का निवासी भद्र मित्र कानि तेषां पुटाः स्थानानि भिद्यन्ते यस्यां सा पण्य अपने समान धन और चरित्र वाले वरिणक् पुत्रों के साथ, पुटमेदिनी। वही, टीका सुवर्णद्वीप के लिए गया। वहां उसने बहुत धन कमाया २३. समानधनचारित्रर्वणिकपुत्रः । पृ० ३४५ उत्त० और मन वांछित सामग्री लेकर लौट पड़ा। रास्ते में तुलना-सार्थन् सधनान् सरतो वा पान्यान वहति सार्थवाहः, अमरकोष ।३९७८ सं० टी०। २५. मोतीचन्द्र-सार्थवाह, पृ० २६ । २४. अग्रवाल-सार्थवाह, प्रस्तावना पृ० २। २६. अग्रवाल-बही पृ०२।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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